महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 84 श्लोक 1-17

चतुरशीतितम (84) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का अर्जुन को आशीर्वाद, अर्जुन का स्वप्न सुनकर समस्त सुहृदों की प्रसन्नता, सात्यकि और श्रीकृष्ण के साथ रथ पर बैठकर अर्जुन की रणयात्रा तथा अर्जुन के कहने से सात्यकि का युधिष्ठिर की रक्षा के लिये जाना
  • संजय कहते हैं- राजन! इस प्रकार उन लोगों में बात-चीत हो ही रही थी कि सुहॄदोंसहित भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर का दर्शन करने की इच्छा से अर्जुन वहाँ आ गये। (1)
  • उस सुन्दर ड्योढ़ी में प्रवेश करके राजा को प्रणाम करने के पश्चात उनके सामने खड़े हुए अर्जुन को पाण्डवश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर उठकर प्रेमपूर्वक हॄदय से लगा लिया। (2)
  • उनका मस्तक सूँघकर और एक बाँह से उनका आलिंगन करके उन्हें उत्तम आशीर्वाद देते हुए राजा ने मुस्कराकर कहा। (3)
  • 'अर्जुन! आज संग्राम में तुम्हें निश्चय ही महान विजय प्राप्त होगी यह बात स्पष्‍टरूप से दॄष्टिगोचर हो रही है; क्योंकि इसी के अनुरूप तुम्हारे मुख की कान्ति है और भगवान श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हैं।' (4)
  • 'तब विजयशील अर्जुन ने उनसे कहा- राजन! आपका कल्याण हो! आज मैंने बहुत उत्तम और आश्चर्यजनक स्वप्न देखा है। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से ही वैसा स्वप्न प्रकट हुआ था।' (5)
  • यों कहकर अर्जुन अपने सुहृदों के आश्वासन के लिये जिस प्रकार भगवान शंकर से मिलन का स्वप्न देखा था, वह सब कह सुनाया। (6)
  • यह स्वप्न सुनकर वहाँ आये हुए सब लोग आश्चर्यचकित हो उठे और सब ने धरती पर मस्तक टेक कर भगवान शंकर को प्रणाम करके कहा- 'यह तो बहुत अच्छा हुआ'। (7)
  • तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर कवच धारण किये हुए समस्त सुहृद हर्ष में भरकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ से युद्ध के लिये निकले। (8)
  • तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर को प्रणाम करके सात्यकि, श्रीकृष्ण और अर्जुन बड़े हर्ष के साथ उनके शिविर से बाहर निकले। (9)
  • दुर्धर्ष वीर सात्यकि और श्रीकृष्ण एक रथ पर आरूढ़ हो एक साथ अर्जुन के शिविर में गये। (10)
  • वहाँ पहुँचकर भगवान श्रीकृष्ण ने एक सारथि के समान रथियों में श्रेष्‍ठ अर्जुन के वानरश्रेष्‍ठ हनुमान के चिह्न से युक्त ध्वजा वाले रथ को युद्ध के लिये सुसज्जित किया। (11)
  • मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाला और तपाये हुए सुवर्ण समान प्रभा से उद्भासित होने वाला वह सजाया हुआ श्रेष्‍ठ रथ प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। (12)
  • तदनन्तर युद्ध के लिये सुसज्जित पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषसिहं श्रीकृष्ण ने नित्य-कर्म सम्पन्न करके बैठे हुए अर्जुन को यह सूचित किया कि रथ तैयार है। (13)
  • तब पुरुषों में श्रेष्‍ठ लोकप्रवर अर्जुन सोने के कवच और किरीट धारण करके धनुष-बाण लेकर उस रथ की परिक्रमा की। (14)
  • उस समय तपस्या, विद्या तथा अवस्था में बड़े-बूढ़े, क्रियाशील जितेन्द्रिय ब्राह्मण उन्हें विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए उनकी स्तुति-प्रशंसा कर रहे थेा। उनकी की हुई वह स्तुति सुनते हुए अर्जुन उस विशाल रथ पर आरूढ़ हुए। (15)
  • उस उत्तम रथ को पहले से ही विजयसाधक युद्धसम्बन्धी मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित किया गया था। उस पर आरूढ़ हुए तेजस्वी अर्जुन उदयाचल पर चढ़े हुए सूर्य के समान जान पड़ते थे। (16)
  • सुवर्णमय कवच से आवृत हो उस स्वर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए रथियों में श्रेष्ठ उज्ज्वल कान्तिधारी तेजस्वी अर्जुन मेरु पर्वत पर प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान शोभा पा रहे थे। (17)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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