महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-19

षटत्रिंश (36) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षटत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मा जी के द्वारा तमोगुण का, उसके कार्य का और फल का वर्णन

ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! जब तीनों गुणों की साम्यावस्था होती है, उस समय उसका नाम अव्यक्त प्रकृति होता है। अव्यक्त समस्त प्राकृत कार्यों में व्यापक, अविनाशी और स्थिर है। उपर्युक्त तीन गुणों में जब विषमता आती है, तब वे पंचभूत का रूप धारण करते है और उनसे नौ द्वार वाले नगर (शरीर) का निर्माण होता है, ऐसा जानो। इस पुर में जीवात्मा को विषयों की और प्रेरित करने वाली मन सति ग्यारह इन्द्रियाँ हैं। इनकी अभिव्यक्ति मन के द्वारा हुई है। बुद्धि इस नगर की स्वामिनी है, ग्याहरवाँ मन दस इन्द्रियों से श्रेष्ठ है। इसमें जो तीन स्त्रोत (त्रिरूपी नदी के प्रवाह) हैं, वे उन तीन गुणमयी नाड़ियों के द्वारा बार-बार भरे जाते एवं प्रवाहित होते हैं। सत्त्व, रज और तम- इन तीनों को गुण कहते हैं। ये परस्पर एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी, एक दूसरे के आश्रित, करनेे वाले और परस्पर मिश्रित रहने वाले हैं। पाँचों महाभूत त्रिगुणात्मक हैं। तमोगुण का प्रतिद्वन्द्वी है सत्त्वगुण और सत्त्वगुण का प्रतिद्वन्द्वी रजोगणु है।

इसी प्रकार रजोगुण का प्रतिद्वन्दी सत्त्वगुण है और सत्त्वगुण का प्रतिद्वन्द्वी तमोगुण है। जहाँ तमोगुण को रोका जाता है, वहाँ रजोगुण बढ़ता है और जहाँ रजोगुण को दबाया जाता है, वहाँ सत्त्वगुण की वृद्धि होती है। तम को अन्धकार रूप और त्रिगुणमय समझना चाहिये। उसका दूसरा नाम मोह है। वह अधर्म को लक्षित कराने वाला और पाप करने वाले लोगों में निश्चित रूप से विद्यमान रहने वाला है। तमोगुण का यह स्वरूप दूसरे गुणों से मिश्रित भी दिखायी देता है। रजोगुण को प्रकृति रूप बतलाया गया है, यह सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है। सम्पूर्ण भूतों में इसकी प्रवृति देखी जाती है। यह दृश्य जगत उसी का स्वरूप है, उत्पत्ति या प्रवृत्ति ही उसका लक्षण है। सब भूतों में प्रकाश, लघुता (गर्वहीनता) और श्रद्धा- यह सत्त्वगुण का रूप है। गर्वहीनता की श्रेष्ठ पुरुषों ने प्रशंसा की है। अब मैं तात्विक युक्तियों द्वारा संक्षेप और विस्तार के साथ इन तीनों गुणों के कार्यों का यथार्थ वर्णन करता हूँ, इन्हें ध्यान देकर सुनो।

मोह, अज्ञान, त्याग का अभाव, कर्मों का निर्णय न कर सकना, निद्रा, गर्व, भय, लोभ, स्वयं शुभ कर्मों में दोष देखना, स्मरणशक्ति का अभाव, परिणाम न सोचना, नास्तिकता, दुश्चरित्रता, निर्विशेषता (अच्छे-बुरे के विवेक का अभाव), इन्द्रियों की शिथिलता, हिंसा आदि निन्दनीय दोषों में प्रवृत्त होना, अकार्य को कार्य और अज्ञान को ज्ञान समझना, शत्रुता, काम में मन न लगाना, अश्रद्धा, मूर्खतापूर्ण विचार, कुटिलता, नासमझी, पाप करना, अज्ञान, आलस्य आदि के कारण देह का भारी होना, भाव-भक्ति का न होना, अजितेन्द्रियता और नीच कर्मों में अनुराग- ये सभी दुर्गुण तमोगुण के कार्य बतलाये गये हैं। इसके सिवा और भी जो-जो बातें इस लोक में निषिद्ध मानी गयी हैं, वे सब तमोगुण ही हैं। देवता, ब्राह्मण और वेद की सदा निन्दा करना, दान न देना, अभिमान, मोह, क्रोध, असहनशीलता और प्राणियों के प्रति मात्सर्य- वे सब तामस बर्ताव हैं। (विधि और श्रद्ध से रहित) व्यर्थ कार्यों का आरम्भ करना, (देश-काल पात्र का विचार न करके अश्रद्धा और अवहेलनापूर्वक) व्यर्थ दान देना तथा (देवता और अतिथि को दिये बिना) व्यर्थ भोजन करना भी तामसिक कार्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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