महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-18

सप्तपञ्चाशत्तम (57) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


विविध प्रकार के तप और दानों का फल

युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! इस पृथ्वी को जब मैं उन सम्पत्तिशाली नरेशों से हीन देखता हूँ, तब भारी चिन्ता में पड़कर बारंबार मूर्च्छित-सा होने लगता हूँ। भरतनन्दन! पितामह! यद्यपि मैंने इस पृथ्वी को जीतकर सैकड़ों देशों के राज्यों पर अधिकार पाया है तथापि इसके लिये जो करोड़ों पुरुषों की हत्या करनी पड़ी है, उसके कारण मेरे मन में बड़ा संताप हो रहा है। हाय! उन बेचारी सुन्दरी स्त्रियों की क्या दशा होगी जो आज अपने पति, पुत्र, भाई और मामा आदि सम्बन्धियों से सदा के लिये विछुड़ गयी हैं। हम लोग अपने ही कुटुम्बीजन कौरवों तथा अन्य सुहृदों का वध करके नीचे मुंह किये नरक में गिरेंगे, इसमें संशय नहीं है। भारत! प्रजानाथ! मैं अपने शरीर को कठोर तपस्या के द्वारा सुखा डालना चाहता हूँ और इसके विषय में आपका यथार्थ उपदेश ग्रहण करना चाहता हूँ।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर महामनस्वी भीष्म जी ने अपनी बुद्धि के द्वारा उस पर भलीभाँति विचार करके उनसे इस प्रकार कहा- प्रजानाथ! मैं तुम्हें एक अद्भुत रहस्य की बात बताता हूँ। मनुष्य को मरने पर किस कर्म से कौन-सी गति मिलती है, इस विषय को सुनो। प्रभो तपस्या से स्वर्ग मिलता है, तपस्या से सुयश की प्राप्ति होती है तथा तपस्या से बड़ी आयु, ऊंचा पद और उत्तमोत्तम भोग प्राप्त होते हैं। भरतश्रेष्ठ! ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, रूप, संपत्ति तथा सौभाग्य भी तपस्या से प्राप्त होते हैं। मनुष्य तप करने से धन पाता है। मौन-व्रत के पालन से दूसरों पर हुक्म चलाता है। दान से उपभोग और ब्रह्मचर्य के पालन से दीर्घआयु प्राप्त करता है। अहिंसा का फल है रूप और दीक्षा का फल है उत्तम कुल में जन्म। फल-मूल खाकर रहने वालों को राज्य और पत्ता चबाकर तप करने वालों को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। दूध पीकर रहने वाला मनुष्य स्वर्ग को जाता है और दान देने से वह अधिक धनवान होता है। गुरु की सेवा करने से विद्या और नित्य श्राद्ध करने से संतान की प्राप्ति होती है।

जो केवल साग खाकर रहने का नियम लेता है, वह गोधन से सम्पन्न होता है। तृण खाकर रहने वाले मनुष्यों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। तीनों काल में स्नान करने से बहुतेरी स्त्रियों की प्राप्ति होती है और हवा पीकर रहने से मनुष्य को यज्ञ का फल प्राप्त होता है। राजन! जो द्विज नित्य स्नान करके दोनों समय संध्योपासना और गायत्री जप करता है, वह चतुर होता है। मरु की साधना-जल का परित्याग करने वाले तथा निराहार रहने वाले को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। मिट्टी की वेदी या चबूतरों पर सोने वालों को घर और शैय्याऐं प्राप्त होती हैं। चीर और वल्क के वस्त्र पहनने से उत्तमोत्तम वस्त्र और आभूषण प्राप्त होते हैं। योगयुक्त तपोधन को शैय्या, आसन और वाहन प्राप्त होते हैं। नियमपूर्वक अग्नि में प्रवेश कर जाने पर जीव को ब्रह्मलोक में सम्मान प्राप्त होता है। रसों का परित्याग करने से मनुष्य वहाँ सौभाग्य का भागी होता है। मांस-भक्षण का त्याग करने से दीर्घायु संतान उत्पन्न होती है। जो जल में निवास करता है, वह राजा होता है। नरश्रेष्ठ सत्यवादी मनुष्य स्वर्ग में देवताओं के साथ आनन्द भोगता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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