सप्तम (7) अध्याय: आदि पर्व (पौलोम पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
मैं योग सिद्धि के बल से अपने आपको अनेक रूपों में प्रकट करके गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि आदि मूर्तियों में, नित्य किये जाने वाले अग्निहोत्रों में, अनेक व्यक्तियों द्वारा संचालित सत्रों में, गर्भाधान आदि क्रियाओं में तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों) में सदा निवास करता हूँ। मुझमें वेदोक्त विधि से जिस हविष्य की आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं। जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओं के लिये किये जाते हैं। अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वों पर ये दोनों एक रूप में भी पूजे जाते हैं और पृथक-पृथक भी। मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भण करते हैं। इसीलिये मैं देवताओं और पितरों का मुख माना जाता हूँ। अमावस्या को पितरों के लिये और पूर्णिमा को देवताओं के लिये मेरे मुख से ही आहुति दी जाती है और उस आहुति के रूप में प्राप्त हुए हविष्य का देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होने पर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ।’ उग्रश्रवा जी कहते हैं- महर्षियों! तदनन्तर अग्निदेव ने कुछ सोच-विचार कर द्विजों के अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं में से अपने आपको समेट लिया। फिर तो अग्नि के बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदि से वंचित होकर अत्यन्त दुखी हो गयी। तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओं के पास जाकर बोले। ‘पापरहित देवगण! अग्नि के अदृश्य हो जाने से अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओं का लोप हो गया है। इससे तीनों लोकों के प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अत: इस विषय में जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आप लोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये।' तत्पश्चात ऋषि ओर देवता ब्रह्माजी के पास गये और अग्नि को जो शाप मिला था एवं अग्नि ने सम्पूर्ण क्रियाओं से जो अपने आपको समेट कर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन करते हुए बोले- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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