महाभारत सभा पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-15

पन्चचत्वारिंश (45) अध्‍याय: सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: पन्चचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल का वध, राजसूय यज्ञ की समाप्ति तथा सभी ब्राह्मणों, राजाओं और श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म की यह बात सुनते ही महापराक्रमी चेदिराज शिशुपाल भगवान वासुदेव के साथ युद्ध के लिये उत्सुक हो उनसे इस प्रकार बोला- ‘जनार्दन! मैं तुम्हें बुला रहा हूँ आओ, मेरे साथ युद्ध करो, जिससे आज मैं समस्त पाण्डवों सहित तुम्हें मार डालूँ। कृष्ण! तुम्हारे साथ ये पाण्डव भी सर्वथा मेरे वध्य हैं, क्योंकि इन्होंने सब राजाओं की अवहेलना करके राजा न होने पर भी तुम्हारी पूजा की। तुम कंस के दास थे तथा राजा भी नहीं हो, इसीलिये राजोचित पूजा के अनधिकारी हो। तो भी कृष्ण! जो लोग मूर्खतावश तुम जैसे दुर्बुद्धि की पूजनीय पुरुष की भाँति पूजा करते हैं, वे अवश्य ही मेरे वध्य है, मैं तो ऐसा ही मानता हूँ’।

ऐसा कहकर क्रोध में भरा हुआ राजसिंह शिशुपाल दाहड़ता हुआ युद्ध के लिये डट गया। शिशुपाल के ऐसा कहने पर अनन्तपराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण ने उसके सामने समस्त राजाओं से मधुर वाणी में कहा- ‘भूमिपालों! यह है तो यदुकुल की कन्या का पुत्र, परंतु हम लोगों से अत्यन्त शत्रुता रखता है। यद्यपि यादवों ने इसका कभी कोई अपराध नहीं किया है, तो भी यह क्रूरात्मा उनके अहित में ही लगा रहता है। नरेश्वर! हम प्राग्ज्योतिषपुर में गये थे, यह बात जब इसे मालूम हुई, तब इस क्रूरकर्मा ने मेरे पिताजी का भानजा होकर भी द्वारका में आग लगवा दी। एक बार भोजराज (उग्रसेन) रैवतक पर्वत पर क्रीड़ा कर रहे थे। उस समय यह वहीं जा पहुँचा और उनके सेवकों को मारकर तथा शेष व्यक्तियों को कैद करके उन सबको अपने नगर में ले गया। मेरे पिताजी अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ले चुके थे। उसमें रक्षकों से घिरा हुआ पवित्र अश्व छोड़ा गया था। इस पापपूर्ण विचार वाले दुष्टात्मा ने पिताजी के यज्ञ में विघ्न डालने के लिये उस अश्व को भी चुरा लिया था।

इतना ही नहीं, इसने तपस्वी बभ्रु की पत्नी का, जो यहाँ से द्वारका जाते समय सौवीर देश पहुँची थी और इसके प्रति जिसके मन में तनिक भी अनुराग नहीं था, मोहवश अपहरण कर लिया। इस क्रूरकर्मा ने माया से अपने असली रूप को छिपाकर करूषराज की प्राप्ति के लिये तपस्या करने वाली अपने मामा विशाल नरेश की कन्या भद्रा का (करूषराज के ही वेष में उपस्थित हो उसे धोखा देकर) अपहरण कर लिया। मैं अपनी बुआ के संतोष के लिये ही इसके बड़े दु:खद अपराधों का सहन कर रहा हूँ, सौभाग्य की बात है कि आज यह समस्त राजाओं के समीप मौजूद है। आप सब लोग देख रहे हैं कि इस समय यह मेरे प्रति कैसा अभद्र बर्ताव कर रहा है। इसने परोक्ष में मेरे प्रति जो अपराध किये हैं, उन्हें भी आप अच्छी तरह जान लें। परंतु आज इसने अहंकारवश समस्त राजाओं के सामने मेरे साथ जो दुर्व्यवहार किया है, उसे मैं कभी क्षमा न कर सकूँगा। अब यह मरना ही चाहता है। इस मूर्ख ने पहले रुक्मिणी के लिये उनके बन्धु बान्धओं से याचना की थी, पंरतु जैसे शूद्र वेद की ऋचाओं को श्रवण नहीं कर सकता, उसी प्रकार इस अज्ञानी को वह प्राप्त न हो सकी’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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