महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-17

चतु:षष्टितम (64) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतु:षष्टितम अध्याय: श्लोक 1- 17 का हिन्दी अनुवाद

राजा अम्‍बरीष का चरित्र

  • नारद जी कहते हैं– सृंजय! मैंने सुना है कि नाभाग के पुत्र राजा अम्‍बरीष भी मृत्यु को प्राप्‍त हुए थे, जिन्‍होंने अकेले ही दस लाख राजाओं से युद्ध किया था। (1)
  • राजा के शुत्रुओं ने उन्‍हें युद्ध में जीतने की इच्‍छा से चारों ओर से उन पर आक्रमण किया था। वे सब अस्‍त्रयुद्ध की कला में निपुण और भयंकर थे तथा राजा के प्रति अभद्र वचनों का प्रयोग कर रहे थे। (2)
  • परंतु राजा अम्‍बरीष को इससे तनिक भी व्‍यथा नहीं हुई। उन्‍होंने शारीरिक बल, अस्‍त्र-बल, हाथों की फुर्ती और युद्ध सम्‍बन्‍धी शिक्षा के द्वारा शत्रुओं के छत्र, आयुध, ध्वजा, रथ और प्रासों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। (3)
  • तब वे शत्रु अपने प्राण बचाने के लिये कवच खोलकर उनसे प्रार्थना करने लगे और हम सब प्रकार से आपके हैं; ऐसा कहते हुए उन शरणदाता नरेश की शरण में चले गये। (4)
  • अनघ! इस प्रकार उन शत्रुओं को वशीभूत करके इस सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी पर विजय पाकर उन्‍होंने शास्‍त्रविधि के अनुसार सौ अभीष्‍ट यज्ञों का अनुष्‍ठान किया। (5)
  • उन यज्ञों में श्रेष्‍ठ ब्राह्मण तथा अन्‍य लोग भी सदा सर्वगुणसम्‍पन्‍न अन्‍न भोजन करते और अत्‍यन्‍त आदर-सत्‍कार पाकर अत्‍यन्‍त संतुष्‍ट होते थे। (6)
  • लड्डू, पूरी, पुए, स्‍वादिष्‍ट कचौड़ी, करम्‍भ, मोटे मुनक्‍के, तैयार अन्‍न, मैरेयक अपूप, रागखाण्‍डव, पानक, शुद्ध एवं सुन्‍दर ढंग से बने हुए मधुर और सुगन्धित भोज्‍य पदार्थ, घी, मधु, दूध, जल, दही, सरस वस्‍तुएँ तथा सुस्‍वादु फल, मूल वहाँ ब्राह्मण लोग भोजन करते थे। (7-9)
  • मादक वस्‍तुएँ पापजनक होती हैं, यह जानकर भी पीने वाले लोग अपने सुख के लिये गीत और वाद्यों के साथ इच्‍छानुसार उनका पान करते थे। (10)
  • पीकर मतवाले बने हुए सहस्‍त्रों मनुष्‍य वहाँ हर्ष में भरकर गाथा गाते, अम्बरीष की स्‍तुति से युक्‍त कविताएँ पढ़ते और नृत्‍य करते थे। (11)
  • उन यज्ञों में राजा अम्‍बरीष ने दस लाख यज्ञकर्ता ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में दस लाख राजाओं को ही दे दिया था। (12)
  • वे सब राजा सोने के कवच धारण किये, श्‍वेत छत्र लगाये, सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए तथा अपने अनुगामी सेवकों और आवश्‍यक सामग्रियों से सम्‍पन्‍न थे। (13)
  • उस विस्‍तृत यज्ञ में यजमान अम्‍बरीष ने उन मूर्धाभिषिक्‍त नरेशों और सैकड़ों राजकुमारों को दण्‍ड और खजानोंसहित ब्राह्मणों के अधीन कर दिया। (14)
  • महर्षि लोग उनके ऊपर प्रसन्न होकर उनके कार्यों का अनुमोदन करते हुए कहते थे कि असंख्‍य दक्षिणा देने वाले राजा अम्‍बरीष जैसा यज्ञ कर रहे हैं, वैसा न तो पहले के राजाओं ने किया और न आगे कोई करेंगे। (15-16)
  • श्‍वैत्‍य सृंजय! वे पूर्वोक्‍त चारों कल्‍याणकारी गुणों में तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्‍हारे पुत्र की अपेक्षा भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी जीवित न रह सके, तब दूसरों की तो बात ही क्‍या है? अत: तुम यश और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ऐसा नारद जी ने कहा। (17)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडराजकीयोपाख्‍यानविषयक चौसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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