महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-1

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-1 का हिन्दी अनुवाद


शिव-पार्वती का धर्म विषयक संवाद, वर्णाश्रम धर्म सम्बन्धी आचार एवं प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण

भगवान शिव ने कहा- प्रिये! पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने एक सर्वोत्तम नारी की सृष्टि की थी। उन्होंने सम्पूर्ण रत्नों का तिल-तिलभर सार उद्धृत करके उस शुभलक्षणा सुन्दरी के अंगों का निर्माण किया था, इसलिये वह तिलोत्तमा नाम से प्रसिद्ध हुई।

देवि! शुभे! इस पृथ्वी पर तिलोत्तमा के रूप की कहीं तुलना नहीं थी। वह सुमुखी बाला मुझे लुभाती हुई मेरी परिक्रमा करने के लिये आयी। देवि! वह सुन्दर दाँतों वाली सुन्दरी निकट से मेरी परिक्रमा करती हुई जिस-जिस दिशा की ओर गयी, उस-उस दिशा की ओर मेरा मनोरम मुख प्रकट होता गया। तिलोत्तमा के रूप को देखने की इच्छा से मैं योगबल से चतुर्मूर्ति एवं चतुर्मुख हो गया। इस प्रकार मैंने लोगों को उत्तम योगशक्ति का दर्शन कराया। मैं पूर्व दिशा वाले मुख के द्वारा इन्द्रपद का अनुशासन करता हूँ। अनिन्दिते! मैं उत्तरवर्ती मुख के द्वारा तुम्हारे साथ वार्तालाप के सुख का अनुभव करता हूँ। मेरा पश्चिम वाला मुख सौम्य है और सम्पूर्ण प्राणियों को सुख देने वाला है तथा दक्षिण दिशा वाला भयानक मुख रौद्र है, जो समस्त प्रजा का संहार करता है। लोगों के हित की कामना से ही मैं जटाधारी ब्रह्मचारी के वेष में रहता हूँ।

देवताओं का हित करने के लिये पिनाक सदा मेरे हाथ में रहता है। पूर्वकाल में इन्द्र ने मेरी श्री प्राप्त करने की इच्छा से मुझ पर वज्र का प्रहार किया था। वह वज्र मेरा कण्ठ दग्ध करके चला गया। इससे मेरी श्रीकण्ठ नाम से ख्याति हुई। प्राचीन काल के दूसरे युग की बात है, बलवान देवताओं और असुरों ने मिलकर अमृत की प्राप्ति के लिये महान प्रयास करते हुए चिरकाल तक महासागर का मन्थन किया था। नागराज वासुकि की रस्सी से बँधी हुई मन्दराचलरूपी मथानी द्वारा जब महासागर मथा जाने लगा, तब उससे सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने वाला विष प्रकट हुआ।। उसे देखकर सब देवताओं का मन उदास हो गया। देवि! तब मैंने तीनों लोकों के हित के लिये उस विष को स्वयं पी लिया। शुभे! उस विष के ही कारण मेरे कण्ठ में मोर पंख के समान नीले रंग का चिह्न बन गया। तभी से मैं नीलकण्ठ कहा जाने लगा। ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं। अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- सम्पूर्ण लोकों को सुख देने वाले नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। देवदेवेश्वर! बहुत-से आयुधों के होते हुए भी आप पिनाक को ही किसलिये धारण करना चाहते हैं? यह मुझे बताने की कृपा करें।

श्रीमहेश्वर ने कहा- पवित्र मुसकान वाली महादेवि! सुनो। मुझे जिस प्रकार धर्मानुकूल शस्त्रों की प्राप्ति हुई है, उसे बता रहा हूँ। युगान्तर में कण्व नाम से प्रसिद्ध एक महामुनि हो गये हैं। उन्होंने दिव्य तपस्या करनी आरम्भ की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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