महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-21

सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


भीष्म द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति - भीष्मस्तवराज

जनमेजय ने पूछा - बाण शय्या पर सोये हुए भरतवंशियों के पितामह भीष्मजी ने किस प्रकार अपन शरीर का त्याग किया और उस समय उन्होंने किस योग की धारणा की ? वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! कुरुश्रेष्ठ! तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त हांकर महात्मा भीष्म के देहत्याग का वृत्तान्त सुनो। राजन्! जब दक्षिणायन समाप्त हुआ और सूर्य उत्तरायण में आ गये, तब माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में मध्यान्ह के समय भीष्मजी ने ध्यानमग्न होकर अपने मन को परमात्मा में लगा दिया। चारों ओर अपनी किरणें बिखेरने वाले सूर्य के समान सैंकड़ों बाणों से छिदे हुए भीष्म उत्तम शोभा से सुशोभित होने लगे, अनेकानेक श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे थे। वेदों के ज्ञाता व्यास, देवर्षि नारद, देवस्थान, वात्स्य, अश्मक, सुमन्तु, जैमिनी, महातमा पैल, शाण्डिल्य, देवल, बुद्धिमान् मैत्रेय, असित, वसिष्ठ, महात्मा कौशिक ( विश्वामित्र ), हारीत, लोमश, बुद्धिमान् दत्तात्रेय, बृहस्पति, शुक्र, महामुनि च्यवन, सनत्कुमार, कपिल, वाल्मीकि, तुम्बुरु, कुरु, मौद्गल्य, भृगुवंशी परशुराम, महामुनि तृणबिन्दु, पिप्पलाद, वायु, संवर्त, पुलह, कच, कश्यप, पुलत्स्य, क्रतु, दक्ष, पराशर, मरीचि, अंगिरा, काशय, गौतम, गालव मुनि, धौम्य, विभाण्ड, माण्डव्य, धौम्र, कृष्णानुभौतिक, श्रेष्ठ ब्राह्मण उलूक, महामुनि मार्कण्डेय, भास्करि, पुरण, कृष्ण और परम धार्मिक सूत - ये तथा और भी बहुत से सौभाग्यशाली महात्मा मुनि, जो श्रद्धा, शम, दम आदि गुणों से सम्पन्न थे, भीष्मजी को घेरे हुए थे। इन ऋषियों के बीच में भीष्म जी ग्रहों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे।
पुरुषसिंह भीष्म शय्या पर ही पड़े-पड़े हाथ जोड़ पवित्र भाव से मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे। ध्यान करते-करते वे हृष्ट-पुष्ट स्वर से भगवान् मधुसूदन की स्तुति करने लगे। वाग्वेत्ताओं में श्रेष्ठ , शक्तिशाली, परम धर्मात्मा भीष्म ने हाथ जोडत्रकर योगेश्वर पद्मनाभ, सर्वव्यापी, विजयशील जगदीश्वर वासुदेव की इस प्रकार स्तुति आरम्भ की। भीष्मजी बोले - मैं श्रीकृष्ण के आराधन की इच्छा मन में लेकर जिस वाणी का प्रयोग करना चाहता हूँ, वह विस्तृत हो या संक्षिप्त, उसके द्वारा वे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। जो स्वयं शुद्ध हैं, जिनकी प्राप्ति का मार्ग भी शुद्ध है, जो हंस स्वरूप, तत् पद के लक्ष्यार्थ परमात्मा और प्रजापालक परमेष्ठी हैं, मैं सब ओर से सम्बन्ध तोड़ केवल उन्हीं से नाता जोड़कर सब प्रकार से उन्हीं सर्वत्मा श्रीकृष्ण की शरण लेता हूँ। उनका न आदि है न अन्त। वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं। उनको न देवता जानते हैं न ऋषि। एकमात्र सबका धारण-पोषण करने वाले से भगवान् श्रीनारायण हरि ही उन्हें जानते हैं। नारायण ही ऋषिगण, सिद्ध, बड़े-बड़े नाग, देवता तथा देवर्षि भी उन्हें अविनाशी परमात्मा के रूप में जानने लगे हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी जिनके विषय में यह नहीं जानते हैं कि ‘ये भगवान् कौन हैं तथा कहाँ से आये हैं ? उन्हीं में सम्पूर्ण प्राणी स्थित हैं और उन्हीं में उनका लय होता है। जैसे डोरे में मन के पिरोये होते हैं, उसी प्रकार उन भूतेश्वर परमात्मा में समस्त त्रिगुणात्मक भूत पिरोये हुए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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