महाभारत आदि पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-11

अष्टसप्ततितम (80) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: अशीतितम अध्‍याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना तथा उसे छोड़कर जाने के लिये उद्यत होना और वृषपर्वा के आदेश से शर्मिष्ठा का देवयानी की दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानी को संतुष्ट करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवयानी की बात सुनकर भृगुश्रेष्ठ शुक्राचार्य बड़े क्रोध में भरकर वृषपर्वा के समीप गये। वह राजसिंहासन पर बैठा हुआ था। शुक्राचार्य जी ने बिना कुछ सोचे-विचारे उससे इस प्रकार कहना आरम्‍भ किया- ‘राजन! जो अधर्म किया जाता है, उसका फल तुरंत नहीं मिलता। जैसे गाय की सेवा करने पर धीरे-धीरे कुछ काल के बाद वह ब्‍याती और दूध देती है अथवा धरती को जोत-बोकर बीज डालने के कुछ काल के बाद पौधा उगता और यथा समय फल देता है, उसी प्रकार किया जाने वाला अधर्म धीरे-धीरे कर्ता की जड़ काट देता है। यदि वह (पाप से उपार्जित द्रव्‍य का) दुष्‍परिणाम अपने ऊपर नहीं दिखायी देता तो उस अन्‍यायोपार्जित द्रव्‍य का उपभोग करने के कारण पुत्रों अथवा नाती-पोतों पर अवश्‍य प्रकट होता है। जैसे खाया हुआ गरिष्ठ अन्न तुरत नहीं तो कुछ देर बाद अवश्‍य ही पेट में उपद्रव करता है, उसी प्रकार किया हुआ पाप भी निश्चय ही अपना फल देता है।

राजन! अंगिरा के पौत्र कच विशुद्ध ब्राह्मण हैं। वे स्‍वाध्‍याय-परायण, हितैषी, क्षमावान् और जितेन्द्रिय हैं, स्‍वाभाव से ही निष्‍पाप और धर्मज्ञ हैं तथा उन दिनों मेरे घर में रहकर निरन्‍तर मेरी सेवा में संलग्‍न थे, परंतु तुमने उनका बार-बार वध करवाया था। वृषपर्वन! ध्‍यान देकर मेरी यह बात सुन लो, तुम्‍हारे द्वारा पहले वध के अयोग्‍य ब्राह्मण का वध किया गया है और अब मेरी पुत्री देवयानी का भी वध करने के लिये उसे कुऐं में ढकेला गया है। इन दोनों हत्‍याओं के कारण मैं तुमको और तुम्‍हारे भाई-बन्‍धुओं का त्‍याग दूंगा। राजन्! तुम्‍हारे राज्‍य में और तुम्‍हारे साथ मैं एक क्षण भी नहीं ठहर सकूंगा। दैत्‍यराज! बड़े आश्‍चर्य की बात है कि तुमने मुझे मिथ्‍यावादी समझ लिया। तभी तो तुम अपने इस दोष को दूर नहीं करते और लापरवाही दिखाते हो’।

वृषपर्वा बोले- ब्रह्मन्! यदि मैं शर्मिष्ठा से देवयानी को पिटवाता या तिरस्‍कृत करवाता होऊं तो इस पाप से मुझे सद्गति न मिले। भृगुनन्‍दन! आप पर अधर्म अथवा मिथ्‍या भाषण दोष मैंने कभी लगाया हो, यह मैं नहीं जानता। आप में तो सदा धर्म और सत्‍य प्रतिष्ठित हैं। अत: आप हम लोगों पर कृपा करके प्रसन्न होइये। भार्गव! यदि आप हमें छोड़कर चले जाते हैं तो हम सब लोग समुद्र में समा जायंगे; हमारे लिये दूसरी कोई गति नहीं है।

शुक्राचार्य ने कहा- असुरों! तुम लोग समुद्र में घुस जाओ अथवा चारों दिशाओं में भाग जाओ; मैं अपनी पुत्री के प्रति किया गया अप्रिय बर्ताव नहीं सह सकता; क्‍योंकि वह मुझे अत्‍यन्‍त प्रिय है। तुम देवयानी को प्रसन्न करो, क्‍योंकि उसी में मेरे प्राण बसते हैं। उसके प्रसन्न हो जाने पर इन्‍द्र के पुरोहित बृहस्‍पति की भाँति मैं तुम्‍हारे योगक्षेम का वहन करता रहूंगा। वृषपर्वा बोले- भृगुनन्‍दन! असुरेश्वरों के पास इस भूतल पर जो कुछ भी सम्‍पत्ति तथा हाथी-घोड़े और गाय आदि पशुधन है, उसके और मेरे भी आप ही स्‍वामी हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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