एकपच्चाशदधिकद्विशततम (251) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकपच्चाशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर अमर्ष में भरकर आमरण उपवास के लिये बैठे हुए राजा दुर्योधन को सान्त्वना देते हुए सुबलपुत्र शकुनि ने कहा। शकुनि बोला- कुरुनन्दन! कर्ण ने बहुत अच्छी बात कही है, जो तुमने सुनी ही है। मैंने पाण्डवों से तुम्हारे लिये जिस समृद्धिशालिनी राजलक्ष्मी का अपहरण किया है, तुम उसे मोहवश क्यों त्याग रहे हो? नरेश्वर! तुम अपनी अल्पबुद्धि के कारण ही आज प्राण-त्याग करने को उतारू हो गये हो अथवा मैं समझता हूँ कि तुमने कभी वृद्ध पुरुषों का सेवन नहीं किया है। जो मनुष्य सहसा उत्पन्न हुई हर्ष अथवा शोक पर नियन्त्रण नहीं रखता, वह राजलक्ष्मी को पाकर भी उसी प्रकार नष्ट हो जाता है; जैसे मिट्टी का कच्चा बर्तन पानी में गल जाता है। जो राजा अत्यन्त डरपोक, बहुत कायर, दीर्घसूत्री (आलसी), प्रमादी और दुर्व्यसनवश विषयों में फंसा होता है, उसे प्रजा अपना स्वामी नहीं स्वीकार करती है। पाण्डवों ने तुम्हारा सत्कार किया है, तो तुम्हें शोक हो रहा है। इसके विपरीत यदि उन्होंने तिरस्कार किया होता, तो न जाने तुम्हारी कैसी दशा हो जाती? उसे तुम शोक का आश्रय लेकर नष्ट न कर दो। राजेन्द्र! जहाँ तुम्हें हर्ष मनाना और पाण्डवों का सत्कार करना चाहिये था, वहाँ तुम शोक कर रहे हो। तुम्हारा यह व्यवहार तो उल्टा ही है। अत: मन में प्रसन्नता लाओ, शरीर का त्याग ना करो। पाण्डवों ने तुम्हारे साथ जो सद्व्यवहार किया है, उसे स्मरण करो और सन्तुष्ट होकर उनका राज्य उन्हें लौटा दो। ऐसा करके यश और धर्म के भागी बनो। मेरे इस प्रस्ताव को समझकर ऐसा ही करो। इससे तुम कृतज्ञ माने जाओगे। पाण्डवों के साथ उत्तम भाईचारे का बर्ताव करके उन्हें राज्य सिंहासन पर बिठा दो और उनका पैतृक राज्य उन्हें समर्पित कर दो। इससे तुम्हें सुख प्राप्त होगा।' वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! शकुनि का यह वचन सुनकर दुर्योधन ने अपने चरणों में पड़े हुए म्लान मुख वाले भ्रातृभक्त शत्रुदमन वीर दु:शासन की ओर देखकर अपनी सुन्दर बाहों द्वारा उसे उठाया और प्रेमपूर्वक हृदय से लगाकर मस्तक सूंघा। कर्ण और शकुनि की भी बातें सुनकर राजा दुर्योधन अत्यन्त उदास हो गया तथा मन-ही-मन लज्जा से अभिभूत हो उसने बड़ी निराशा का अनुभव किया। सब सुहृदों के वचन सुनकर दुर्योधन ने उनसे कुपित हो इस प्रकार कहा- ‘मुझे धर्म, धन, सुख, ऐश्वर्य, शासन और भोग किसी की भी आवश्यकता नहीं है। तुम लोग मेरे निश्चय में बाधा न डालो। यहाँ से चले जाओ। आमरण अनशन करने के सम्बन्ध में मेरी बुद्धि का निश्चय अटल है। तुम सब लोग नगर को जाओ और वहाँ मेरे गुरुजनों का सदा आदर सत्कार करो’। ऐसा उत्तर पाकर सब सुहृदों ने शत्रुदमन राजा दुर्योधन से कहा- ‘राजेन्द्र! तुम्हारी जो गति होगी, वही हमारी भी होगी। भारत! हम तुम्हारे बिना हस्तिनापुर में कैसे प्रवेश करेंगे?’ वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! दुर्योधन को उसके सुहृद्, मन्त्री, भाई तथा स्वजनों ने बहुतेरा समझाया, परंतु कोई भी उसे अपने निश्चय से विचलित न कर सका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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