महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-5

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद

त्याग का, सांख्यसिद्धान्त का, फलसहित वर्ण-धर्म का, उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का, भक्ति सहित निष्काम कर्मयोग का एवं गीता के महात्मय का वर्णन

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 18

सम्बन्ध- गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से गीता के उपदेश का आरम्भ हुआ। वहाँ से आरम्भ करके तीसवें श्लोक तक भगवान् ने अर्जुन को ज्ञान योग का उपदेश दिया। और प्रसंगवश क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की कर्तव्यता का प्रतिपादन करके उन्चालीसवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त कर्मयोग का उपदेश दिया, उसके बाद तीसरे अध्याय से सत्रहवें अध्याय तक कहीं ज्ञानयोग की दृष्टि से और कही कर्मयोग की दृष्टि से परमात्मा की प्राप्ति के बहुत से साधन बतलाये। उन सबको सुनने के अनन्तर अब अर्जुन इस अठारहवें अध्याय में समस्त अध्यायों के उपदेश का सार जानने के उद्देश्य से भगवान् के सामने संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँति अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट करते हैं- अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक जानना चाहता हूँ।[1]

श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के[2] त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं।[3] कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त है, इसलिये त्यागने के योग्य है[4] और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है।[5]

सम्बन्ध- इस प्रकार संन्यास और त्याग के विषयों में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाकर अब भगवान् त्याग के विषय में अपना निश्चय बतलाना आरम्भ करते हैं, कृष्ण कहते हैं- हे पुरुष अर्जुन! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन; क्‍योंकि त्याग सात्त्विक, राजस और तामस-भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है[6] क्‍योंकि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुन के प्रश्न का यह भाव है कि संन्यास (ज्ञानयोग) का क्या स्वरूप है, उसमें कौन-कौन से भाव और कर्म सहायक एवं कौन-कौन से बाधक है, उपासना सहित सांख्ययोग का और केवल सांख्ययोग का साधक किस प्रकार किया जाता है इसी प्रकार त्याग (फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग) का क्या स्वरूप है; केवल कर्मयोग साधन किस प्रकार होता है, क्या करना इसके लिये उपयोगी है और क्या करना इसमें बाधक है; भक्तिमिश्रित एवं भक्तिप्रधान कर्मयोग कौन सा है; भक्तिप्रधान कर्म योग कौन-सा है तथा लौकिक और शास्त्रीय कर्म करते हुए भक्तिमिश्रित एवं भक्तिप्रधान कर्मयोग का साधन किस प्रकार किया जाता है- इन सब बातों को भी मै भलीभाँति जानना चाहता हूँ।
    उत्तर में भगवान् इस अध्याय के तेरहवें से सतरहवें श्लोक तक संन्यास (ज्ञानयोग) का स्वरूप बतलाया है। उन्नीसवें से चालीसवें श्लोक तक जो सात्त्विक भाव और कर्म बतलाये हैं, वे इसके साधन में उपयोगी हैं और राजस, तामस इसके विरोधी हैं। पचासवें से पचपनवें तक उपासना सहित सांख्ययोग की विधि और फल बतलाया है तथा सत्रहवें श्लोक में केवल सांख्ययोग का साधन करने का प्रकार बतलाया है।
    इसी प्रकार छठे श्लोक में (फलासक्ति त्यागरूप) कर्मयोग का स्वरूप बतलाया है। नवें श्लोक में सात्त्विक त्याग के नाम से केवल कर्मयोग के साधन की प्रणाली बतलायी है। सैतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकों में स्वधर्म के पालन को इस साधन में उपयोगी बतलाया है और सातवें तथा आठवें श्लोकों में वर्णित तामस, राजस त्याग को इसमें बाधक बतलाया है। पैतालिसवें और छियालिसवें श्लोकों में भक्तिमिश्रित कर्मयोग का और छप्पनवें से छाछठवें श्लोक तक भक्तिप्रधान कर्मयोग का वर्णन है। छियालीसवें श्लोक में लौकिक और शास्त्रीय समस्त कर्म करते हुए भक्तिमिश्रित कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलायी है और सत्तावनवें श्लोक में भगवान् ने भक्तिप्रधान कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलायी हैं।
  2. स्त्री, पुरुष, धन और स्वर्गदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिये और रोग संकटादि अप्रिय की निवृत्ति के लिये यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि जिन शुभ कर्मों का शास्त्रों में विधान किया गया है- ऐसे शुभ कर्मों का नाम ‘काम्यकर्म’ है।
  3. ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पिता गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका के कर्म और शरीर सम्बन्धी खान-पान इत्यादि जितने भी शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म है, उनके अनुष्ठान से प्राप्त होने वाले स्त्री, पुरुष, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग सुख आदि जितने भी इस लोक और परलोक के भोग हैं- उन सबकी कामना का सर्वथा त्याग कर देना ही समस्त कर्मो के फल का त्याग करना है।
  4. आरम्भ (क्रिया) मात्र में ही कुछ-न-कुछ पाप का सम्बन्ध हो जाता है, अतः विहित कर्म भी सर्वथा निर्दोष नहीं है इस भाव को लेकर कितने ही विद्वानों का कहना है कि कल्याण चाहने वाले मनुष्य को नित्य, नैमित्तिक और काम्य आदि सभी कर्मों का स्वरूप त्याग कर देना चाहिये।
  5. बहुत-से विद्वानों के मत में यज्ञ, दान, तपरूप कर्म वास्तव में दोषयुक्त नहीं है। वे मानते हैं कि उन कर्मों के निमित्त किये जाने वाले आरम्भ में जिन अवश्यम्भावी हिंसादि पापों का होना देखा जाता है, वे वास्तव में पाप नहीं है। इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्य को निषिद्ध कर्मों का ही त्याग करना चाहिये, शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।
  6. शास्त्रों में अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जिसके लिये जिस कर्म का विधान है- जिसको जिस समय जिस प्रकार यज्ञ करने के लिये, दान देने के लिये और तप करने के लिये कहा गया है- उसे उसका त्याग नहीं करना चाहिये, यानी शास्त्र-आज्ञा की अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्‍योंकि इस प्रकार के त्याग से किसी प्रकार का लाभ होना तो दूर रहा, उल्टा प्रत्यवाय होता है। इसलिये इन कर्मों का अनुष्ठान मनुष्य को अवश्य करना चहिये।

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