महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-14

अष्टम (8) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का युधिष्ठिर के मत निराकरण करते हुए उन्हें धन की महत्ता बताना और राजधर्म के पालन के लिये जोर देते हुए यज्ञानुष्ठान के लिये प्रेरित करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर की यह बात सुनकर अर्जुन इस प्रकार असहिष्णु हो उठे, मानों उन पर कोई आक्षेप किया गया हो। वे बातचीत करने या पराक्रम दिखाने में किसी से दबने वाले नहीं थे। उनका पराक्रम बड़ा भयंकर था। वे महातेजस्वी इन्द्रकुमार अपने उग्ररूप का परिचय देते और दोनों गलफरों को चाटते हुए मुस्करा कर इस तरह गर्वयुक्त वचन कहने लगे, जैसे नाटक के रंग-मंच पर अभिनय कर रहे हों।

अर्जुन ने कहा- राजन्! यह तो बड़े भारी दुःख और महान् कष्ट की बात है! आपकी विह्बलता तो पराकाष्ठा को पहुँच गयी। आश्चर्य है कि आप अलौकिक पराक्रम करके प्राप्त की हुई इस उत्तम राजलक्ष्मी का परित्याग कर रहे हैं। आपने शत्रुओं का संहार करके इस पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त किया है। यह राज्य-लक्ष्मी आपको अपने धर्म के अनुसार प्राप्त हुई है। इस प्रकार जो यह सब कुछ आप के हाथ में आया है, इसे आप अपनी अल्पबुद्धि के कारण क्यों छोड़ रहे है? किसी कायर या आलसी को कैसे राज्य प्राप्त हो सकता है? यदि आपको यही करना था तो किसलिये क्रोध से विकल होकर इतने राजाओं का वध किया और कराया? जिसके कल्याण साधन नष्ट हो गया है, जो निरा दरिद्र है, जिसकी संसार में कोई ख्याति नहीं है, जो स्त्री-पुत्र और पशु आदि से सम्पन्न नहीं है तथा जो असमर्थता वश अपने पराक्रम से किसी के राज्य या धन को लेने की इच्छा नहीं कर सकता, उसी मनुष्य को भीख मांगकर जीवन-निर्वाह करने की अभिलाषा रखनी चाहिये।

नरेश्वर! जब आप यह समृद्धिशाली राज्य छोड़कर हाथ में खपड़ा लिये घर-घर भीख मांगने की नीचातिनीचि-वृत्ति का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करने लगेंगे, तब लोग आपको क्या कहेंगे? प्रभो! आप सारे उद्योग छोड़कर कल्याण के साधनों से हीन और अंकिचन हुए साधारण पुरुषों के समान भीख मांगने की इच्छा क्यों करते हैं। इस राजकुलम में जन्म लेकर सारे भूमण्डल पर विजय प्राप्त करके अब सम्पूर्ण धर्म और अर्थ दोनों को छोड़कर आप मोह के कारण बन में जाने को उद्यत हुए हैं। यदि आपके त्याग देने पर यज्ञ की इन संचित सामग्रियों को दुष्ट लोग नष्ट कर देंगे तो इसका पाप आपको ही लगेगा (अर्थात् आपने यज्ञ-त्याग छोड़ दिये हैं, अतः आपको आदर्श मानकर दूसरे लोग भी इस कर्म से उदासीन हो जायेंगे, उस दशा में इस धर्मकृत्य का उच्छेद् हो जायगा और इसका दोष आपके सिर ही लगेगा)। राजा नहुष ने निर्धनावस्था में क्रूरतापूर्ण कर्म करके यह दुःख पूर्ण उद्धार प्रकट किया था कि 'इस जगत् में निर्धनता को धिक्कार है! सर्वस्व त्यागकर निर्धन या अकिंचन हो जाना यह मुनियों का ही धर्म है, राजाओं का नहीं’।

आप भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि दूसरे दिन के लिये संग्रह न करके प्रतिदिन माँगकर खाना यह ऋषि-मुनियों का ही धर्म है। जिसे राजाओं का धर्म कहा गया है, वह तो धन से ही सम्पन्न होता है। राजन्! जो मनुष्य जिसका धन हर लेता है, वह उसके धर्म का भी संहार कर देता है। यदि हमारे धन का अपहरण होने लगे तो हम किसको और कैसे क्षमा कर सकते हैं? दरिद् मनुष्य पास में खड़ा हो तो लोग इस तरह उसकी ओर देखते हैं, मानो वह कोई पापी या कलंकित हो; अतः दरिद्रता इस जगत् में एक पातक है। आप मेरे आगे उसकी प्रशंसा न करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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