सप्ताधिकद्विशततम (207) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: सप्ताधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! उस पतिव्रता देवी की कही हुई सारी बातों पर विचार करके कौशिक ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह अपने-आप को धिक्कारता हुआ अपराधी-सा जान पड़ने लगा। फिर अपने धर्म की सूक्ष्म गति पर विचार करके वह मन ही मन बोला- ‘मुझे (उस सती के कथन पर) श्रद्धा और विश्वास करना चाहिये; अत: मैं अवश्य मिथिला जाऊंगा। कहते हैं, वहाँ एक पुण्यात्मा धर्मज्ञ व्याध निवास करता है। मैं उस तपोधन व्याघ से धर्म की बात पूछने के लिये आज ही उसके पास जाऊंगा।' मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके वह कौतूहलवश मिथिलापुरी की ओर चल दिया। पतिव्रता स्त्री बगुली पक्षी वाली घटना स्वयं जान गयी थी और उसने धर्मानुकूल शुभ वचनों द्वारा उपदेश दिया था, इन कारणों से उसकी बातों पर कौशिक ब्राह्मण की बड़ी श्रद्धा हो गयी थी। वह अनेकानेक जंगलों, गांवों तथा नगरों को पार करता हुआ राजा जनक के द्वारा सुरक्षित, धर्म की मर्यादा से व्याप्त तथा यज्ञसम्बन्धी उत्सवों से सुशोभित सुन्दर मिथिलापुरी में जा पहुँचा। बहुत-से गोपुर, अट्टालिकाएं, महल और चहारदीवारियां उस नगर की शोभा बढ़ा रही थीं। वह रमणीयपुरी बहुत-से विमानों से युक्त थी तथा बहुत-सी दुकानें उस पुरी का सौन्दर्य बढ़ाती थीं। सुन्दर ढंग से बनायी हुई बड़ी-बड़ी सड़कें शोभा पा रही थीं। बहुसंख्यक घोड़े, रथ, हाथी और सैनिकों से संयुक्त मिथिलापुरी हष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरी हुई थी। वहाँ नित्य नाना प्रकार के उत्सव होते रहते थे और अनेक प्रकार की घटनाएं घटित होती थीं। ब्राह्मण ने उस पुरी में प्रवेश करके सब ओर घूम-घूमकर उसे अच्छी तरह देखा। वहाँ उसने लोगों से धर्म व्याध का पता पूछा और ब्राह्मणों ने उसे उसका स्थान बता दिया। कौशिक ने वहाँ जाकर देखा कि तपस्वी धर्मव्याध कसाई खाने में बैठकर सूअर, भैंसे आदि पशुओं का मांस बेच रहा है। वहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी हुई थी, इसलिये कौशिक एकान्त मे जाकर खड़ा हो गया। ब्राह्मण को आया हुआ जानकर व्याध सहसा शीघ्रतापूर्वक उठ खड़ा हुआ और उस स्थान पर आ गया, जहाँ ब्राह्मण एकान्त स्थान में खड़ा था। व्याध बोला- भगवन्! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। द्विजश्रेष्ठ! आपका स्वागत है। मैं ही वह व्याध हूँ (जिसकी खोज में आपने यहाँ तक आने का कष्ट किया है) आपका भला हो, आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ। उस पतिव्रता देवी ने जो आपसे यह कहकर भेजा है कि ‘तुम मिथिलापुरी को जाओ।’ वह सब मैं जानता हूँ। आप जिस उद्देश्य से यहाँ पधारे हैं, वह भी मुझे मालूम है।' व्याध की वह बात सुनकर ब्राह्मण को बड़ा विस्मय हुआ। वह मन-ही-मन सोचने लगा- 'यह दूसरा आश्चर्य दृष्टिगोचर हुआ है'। इसके बाद व्याध ने कहा- ‘भगवन्! यह स्थान आपके ठहरने योग्य नहीं है। अनघ! यदि आपकी रुचि हो तो हम दोनों हमारे घर पर चलें’। मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! यह सुनकर ब्राह्मण को बड़ा हर्ष हुआ। उसने व्याध से कहा- ‘बहुत अच्छा’ ऐसा ही करो। तब व्याध ब्राह्मण को आगे करके घर की ओर चला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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