महाभारत वन पर्व अध्याय 99 श्लोक 1-16

एकोनशततम (99) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


अगस्‍त्‍य जी का इल्‍वल के यहाँ धन के लिये जाना, वातापि तथा इल्‍वल का वध, लोपामुद्रा को पुत्र की प्राप्ति तथा श्रीराम के द्वारा हरे हुए तेज की परशुराम को तीर्थस्‍नान द्वारा पुन
प्राप्ति

लोमश जी कहते हैं- राजन्! इल्वल ने महर्षि सहि‍त उन राजाओं को आता जान मन्त्रियों के साथ अपने राज्‍य की सीमा पर उपस्थित होकर उन सब का पूजन किया। कुरुनन्‍दन! उस समय असुरश्रेष्‍ठ इल्‍वल ने अपने भाई वातापि का मांस राँधकर उसके द्वारा उन सब का आतिथ्‍य किया। भेड़ के रूप में महान् दैत्‍य वातापि को राँधा गया देख उन सभी राजर्षियों का मन खिन्‍न हा गया और वे अचेत-से हो गये। तब ऋर्षिश्रेष्‍ठ अगस्‍त्‍य ने उन राजर्षियों से (आश्‍वासन देते हुए) कहा- ‘तुम लोगों को चिन्‍ता नहीं करनी चाहिय। मैं ही इस महादैत्‍य को खा जाऊँगा।‘

ऐसा कहकर महर्षि अगस्‍त्‍य प्रधान आसन पर जा बैठे और दैत्‍यराज इल्‍वल ने हंसते हुए से उन्‍हें वह मांस परोस दिया। अगस्‍त्‍य जी ही वातापि का सारा मांस खा गये। जब वे भोजन कर चुके, तब असुर इल्‍वल ने वातापि का नाम लेकर पुकारा। तात! उस समय महात्‍मा अगस्‍त्‍य की गुदा से गर्जते हुए मेघ की भाँति भारी आवाज के साथ अधोवायु निकली। इल्‍वल बार-बार कहने लगा- ‘वातापि‍! निकलो-निकलो।‘ राजन् तब मुनिश्रेष्‍ठ अगस्‍त्‍य ने उससे हँसकर कहा- ‘अब वह कैस निकल सकता है, मैंने (लोकहित के लिये) उस असुर को पचा लिया है। महादैत्‍य वातापि को पच गया देख इल्‍वल को बड़ा खेद हुआ। उसने मन्त्रियों सहित हाथ जोड़कर उन अतिथियों से यह बात पूछी– ‘आप लोग किस प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं, बताइये, मैं आप लागों की क्‍या सेवा करुँ?' तब महर्षि अगस्‍त्‍य ने हँसकर इल्‍वल से कहा- ‘असुर! हम सब लोग तुम्‍हें शक्तिशाली शासक एवं धन का स्‍वामी समझते हैं। ये नरेश अधिक धनवान नहीं हैं और मुझे बहुत धन की आवश्‍यकता आ पड़ी है। अत: दूसरे जीवों को कष्‍ट न देते हुए अपने धन में से यथाशक्ति कुछ भाग हमें दे दो‘। तब इल्‍वल ने महर्षि को प्रणाम करके कहा- ‘मैं कितना धन देना चाहता हूँ? यह बात यदि आप जान लें तो मैं आपको धन दूँगा’।

अगस्‍त्‍य जी ने कहा- महान् असुर! तुम इनमें से एक-एक राजा को दस–दस हजार गौएँ तथा इतनी ही (दस-दस हजार) सुवर्ण मुद्राएं देना चाहते हो। इन राजाओं की अपेक्षा दूनी गौएं और सुवर्ण मुद्राएं तुमने मरे लिये देने का विचार किया है। महादैत्‍य! इसके सिवा एक स्‍वर्णमय रथ, जिसमें मन के समान तीव्रगामी दो घोड़े जुते हों, तुम मुझे और देना चाहते हो।

लोमश जी कहते हैं– राजन्! इस पर इल्‍वल ने अगस्‍त्‍य मु‍नि से कहा कि- ’आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वह सब सत्‍य है, किंतु आपने जो मुझसे रथ की बात की है, उस रथ को हम लोग सुवर्णमय नहीं समझते हैं।

महर्षि अगस्‍त्‍य ने कहा– महादैत्‍य! मेरे मुँह से पहले कभी कोई बात झूठी नहीं निकली है, अत: शीघ्र पता लगाओ, यह रथ निश्‍चय ही सोने का है।

लोमश जी कहते हैं- कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर! पता लगाने पर वह रथ सोने का ही निकला, तब मन में (भाई की मृत्‍यु से) व्‍यथित हुए उस दैत्‍य ने महर्षि को बहुत अधिक धन दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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