एकसप्तत्यधिकद्विशततम (271) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकसप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-17 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
धन और काम-भोगों की अपेक्षा धर्म और तपस्या का उत्कर्ष सूचित करने वाली ब्राह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा राजा युधिष्ठिर ने पूछा - भरतनन्दन पितामह! वेद तो धर्म, अर्थ और काम - तीनों की ही प्रशंसा करते हैं; अत: आप मुझे यह बताइये कि इन तीनों में से किसकी प्राप्ति मेरे लिये सबसे बढकर है। भीष्म जी ने कहा- राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाऊँगा, जिसके अनुसार कुण्डधार नामक मेघ ने पूर्वकाल में प्रसन्न होकर अपने एक भक्त का उपकार किया था। किसी समय एक निर्धन ब्राह्मण ने सकाम भाव से धर्म करने का विचार किया। वह यज्ञ करने के लिये सदा ही धन की इच्छा रखता था, अत: बड़ी कठोर तपस्या करने लगा। यही निश्चय करके उसने भक्ति पूर्वक देवताओं की पूजा-अर्चना आरम्भ की। परंतु देवताओं की पूजा करके भी वह धन न पा सका। तब वह इस चिन्ता में पड़ा कि वह कौन-सा देवता है, जो मुझ पर शीघ्र प्रसन्न हो जाय और मनुष्यों ने आराधना करके जिस ज़ड न बना दिया हो। तदनन्तर उस ब्राह्मण ने शान्त मन से देवताओं के अनुचर कुण्डधार नामक मेघ को पास ही खड़ा देखा। उस महाबाहु मेघ को देखते ही ब्राह्मण के मन में उसके प्रति भक्ति उत्पन्न हो गयी और वह सोचने लगा कि यह अवश्य मेरा कल्याण करेगा; क्योंकि इसका यह शरीर वैसे ही लक्षणों से सम्पन्न है। यह देवता का संनिकटवर्ती है और दूसरे मनुष्यों ने इसे घेर नहीं रखा है। इसलिये यह मुझे शीघ्र ही प्रचुर धन देगा। तब ब्राह्मण ने धूप, गन्ध, छोटे-बड़े माल्य तथा भाँति-भाँति के पूजोपहार अर्पित करके कुण्डधार मेघ का पूजन किया। इससे वह मेघ थोडें ही समय में संतुष्ट हो गया और उसने ब्राह्मण के उपकार में नियमपूर्वक प्रवृति सूचित करने वाली यह बात कही - 'ब्रह्मन्! ब्रह्म हत्यारे, शराबी, चोर और व्रतभंग करने वाले मनुष्य के लिये साधुपुरुषों ने प्रायश्चित का विधान किया है, किंतु कृतघ्न के लिये कोई प्रायश्चित नहीं है। 'आशा का पुत्र अधर्म है। असूया का पुत्र क्रोध माना गया है। निकृति (शठता) का पुत्र लोभ है; परंतु कृतघ्न मनुष्य संतान पाने के योग्य नहीं है'। तदनन्तर वह ब्राह्मण कुण्डधार के तेज से प्रेरित हो कुशों की शय्या पर सो गया और स्वप्न में उसने समस्त प्राणियों को देखा। वह शम-दम, तप और भक्तिभाव से सम्पन्न, भोगरहित तथा शुद्धचित्त वाला था। उस ब्राह्मण को रात में कुछ ऐसा दृष्टान्त दिखायी दिया, जिससे उसे कुण्डधार के प्रति अपनी भक्ति का परिचय मिल गया। युधिष्ठिर! उसने देखा कि महातेजस्वी महात्मा यक्षराज मणिभद्र वहाँ विराजमान हैं और देवताओं के समक्ष विभिन्न याचकों को उपस्थित कर रहे हैं। वहाँ देवता लोग उन याचकों के शुभ कर्म के बदले राज्य और धन आदि दे रहे थे और अशुभ कर्म का भोग उपस्थित होने पर पहले के दिये हुए राज्य आदि को भी छीन लेते थे। भरतश्रेष्ठ! वहाँ यक्षों के देखते-देखते महातेजस्वी कुण्डधार ने देवताओं के आगे धरती पर माथा टेक दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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