द्वात्रिंश (32) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर, एवं भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अक्षर के साथ ‘परम’ विशेषण देकर भगवान् यह बतलाते हैं कि गीता के सातवें अध्याय के उन्तीसवें श्लोक में प्रयुक्त ‘ब्रह्म’ शब्द निर्गुण निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का वाचक है; वेद, ब्रह्मा और प्रकृति आदि का नहीं।
- ↑ ’स्वों भाव: स्वभाव:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने ही भाव का नाम स्वभाव है। जीवरूपा भगवान् की चेतन परा प्रकृति रूप आत्मतत्त्व ही जब आत्म-शब्दवाच्य शरीर, इन्द्रिय, मन-बुद्धियादिरूप अपरा प्रकृति का अधिष्ठाता हो जाता है, तब उसे ‘अध्यात्म’ कहते हैं। अत एवं गीता के सातवें अध्याय के उन्तीसवें श्लोक में भगवान् में ‘कृत्स्त्र’ विशेषण के साथ जो ‘अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ ‘चेतन जीवसमुदाय’ समझना चाहिये।
- ↑ ’भूत’ शब्द चराचर प्राणियों का वाचक है। इन भूतों के भाव का उद्भव और अभ्युदय जिस त्याग से होता है, जो सृष्टि-स्थिति का आधार है, उस ‘त्याग’ का नाम ही कर्म है। महाप्रलय में विश्व के समस्त प्राणी अपने-अपने कर्म-संस्कारों के साथ भगवान् में विलीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में भगवान् जब यह संकल्प करते हैं कि ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊं’ तब पुन: उनकी उत्पत्ति होती हैं। भगवान् का यह ‘आदि संकल्प’ ही अचेतन प्रकृति रूप योनि में चेतनरूप बीज की स्थापना करना है। यही महान् विसर्जन है और इसी विसर्जन (त्याग) का नाम ‘विसर्ग’ है।
- ↑ अपरा प्रकृति और उसके परिणाम से उत्पन्न जो विनाशशील तत्त्व है, जिसका प्रतिक्षण क्षय होता है, उसका नाम ‘क्षरभाव’ है। इसी को गीता के तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ (शरीर) के नाम से और पंद्रहवें अध्याय में ‘क्षर’ पुरुष के नाम से कहा गया है।
- ↑ ‘पुरुष’ शब्द यहाँ ‘प्रथम पुरुष’ का वाचक है; इसी को सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति या ब्रह्मा कहते हैं। जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण विश्व का यही प्राण पुरुष है, समस्त देवता इसी के अंग हैं, यही सबका अधिष्ठाता, अधिपति और उत्पादक है; इसी से इसका नाम ‘अधिदैव’ है।
- ↑ अर्जुन दो बातें पूछी थीं- ‘अधियज्ञ’ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे हैं? दोनों प्रश्नों का भगवान् ने एक ही साथ उत्तर दे दिया है। भगवान् ही सब यज्ञों के भोक्ता और प्रभु हैं (गीता 5।29; 9।24) और समस्त फलों का विधान वे ही करते हैं (गीता 7/22) तथा वे ही अन्तर्यामीरूप से सबके अंदर व्यापक हैं; इसलिये वे कहते हैं कि ‘इस शरीर में अन्तर्यामीरूप से अधियज्ञ मैं स्वयं ही हूँ।’
- ↑ यहाँ अन्तकाल का विशेष महत्त्व प्रकट किया गया है, अत: भगवान् के कहने का यहाँ यह भाव है कि जो सदा-सर्वदा मेरा अनन्यचिन्तन करते हैं उनकी तो बात ही क्या है, जो इस मनुष्य-जन्म के अन्तिम क्षण तक भी मेरा चिन्तन करते हुए शरीर त्यागकर जाते हैं, उनको भी मेरी प्राप्ति हो जाती है।
- ↑ अन्तकाल में भगवान् का स्मरण करने वाला मनुष्य किसी भी देश और किसी भी काल में क्यों न मरे एवं पहले के उसके आचरण चाहे जैसे भी क्यों न रहे हों, उसे भगवान् की प्राप्ति नि:संदेह हो जाती है। इसमें जरा भी शंका नहीं है।
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