महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 88 श्लोक 1-14

अष्टाशीतितम (88) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


कौरव-सेना के लिये अपशकुन, दुर्मर्ण का अर्जुन से लड़ने का उत्साह तथा अर्जुन का रणभूमि में प्रवेश एवं शंखनाद
  • संजय कहते हैं- आर्य! जब इस प्रकार कौरव-सेनाओं की व्यूह-रचना हो गयी, युद्ध के लिये उत्सुक सैनिक कोललाहल करने लगे, नगाड़े पीटे जाने लगे, मृदंग बजने लगे, सैनिकों की गर्जना के साथ-साथ रणवाद्यों की तुमुल ध्वनि फैलने लगी शंख फूँके जाने लगे, रोमांचकारी शब्द गूँजने लगा और युद्ध के इच्छुक भरतवंशी वीर जब कवच धारण करके धीरे-धीरे प्रहार लिये उद्यत होने लगे, उस समय उग्र मुहूर्त आने पर युद्धभूमि में सव्यसाची अर्जुन दिखायी दिये। (1-3)
  • भारत! वहाँ सव्यसाची अर्जुन के सम्मुख आकाश में कई हजार कौए और वायस क्रीडा करते हुए उड़ रहे थे। (4)
  • और जब हम लोग आगे बढ़ने लगे, तब भयंकर शब्द करने वाले पशु और अशुभ दर्शन वाले सियार हमारे दाहिने आकर कोलाहल करने लगे। (5)
  • महाराज! उस लोक-संहारकारी युद्ध में जैसे-तैसे अपशकुन प्रकट होने लगे, जो आपके पुत्रों के लिये अमगंलकारी और अर्जुन के लिये मगंलकारी थे।
  • महान भय उपस्थित होने के कारण आकाश से भयंकर गर्जना के साथ सहस्रों जलती हुई उल्काएँ गिरने लगीं और सारी पृथ्वी काँपने लगी। (6)
  • अर्जुन के आने और संग्राम का अवसर उपस्थित होने पर रेत की वर्षा करने वाली विकट गर्जन-तर्जन के साथ रूखी एवं चौबाई हवा चलने लगी। (7)
  • उस समय नकुलपुत्र शतानीक और द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न- इन दोनों बुद्धिमान वीरों ने पाण्डव सैनिकों के व्यूह का निर्माण किया। (8)
  • तदनन्तर एक हजार रथी, सौ हाथीसवार, तीन हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल सैनिकों के साथ आकर अर्जुन से डेढ़ हजार धनुष की दूरी पर स्थित हो समस्त कौरव सैनिकों के आगे होकर आपके पुत्र दुर्मर्षण ने इस प्रकार कहा। (9-10)
  • 'जिस प्रकार तटभूमि समुद्र को आगे बढ़ने से रोकती है,उसी प्रकार आज मैं युद्ध में उन्मुक्त होकर लड़ने वाले शत्रुसंतापी गाण्डीवधारी अर्जुन को रोक दूँगा।' (11)
  • 'आज सब लोग देखें, जैसे पत्थर दूसरे प्रस्तरसमूह से टकराकर रह जाता है, उसी प्रकार अमर्शषील दुर्घर्ष अर्जुन युद्धस्थल में मुझसे भिड़कर अवरुद्ध हो जायँगे।' (12)
  • 'संग्राम की इच्छा रखने वाले रथियो! आप लोग चुपचाप खड़े रहें। मैं कौरवकुल के यश और मान की वृद्धि करता हुआ आज इन संगठित होकर आये हुए शत्रुओं के साथ युद्ध करूँगा।' (13)
  • राजन! महाराज! ऐसा कहता हुआ वह महामनस्वी महाबुद्धिमान एवं महाधनुर्धर दुर्मर्षण बड़े-बड़े धनुर्धरों से घिरकर युद्ध के लिये खड़ा हो गया। (14)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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