महाभारत वन पर्व अध्याय 239 श्लोक 1-16

एकोनचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (239) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


कर्ण आदि के द्वारा द्वैतवन में जाने का प्रस्‍ताव, राजा धृतराष्‍ट्र की अस्‍वीकृति, शकुनि का समझाना, धृतराष्‍ट्र का अनुमति देना तथा दुर्योधन का प्रस्‍थान

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- भरतनन्‍दन जनमेजय! तदन्‍तर वे सेब लोग राजा धृतराष्ट्र से मिले। उन्‍होंने राजा की कुशल पूछी तथा राजा ने उनकी। उन लोगों ने समूह नामक एक ग्‍वाले को पहले से ही सिखा-पढ़ाकर ठीक कर लिया था। उसने राजा धृतराष्‍ट्र की सेवा में निवेदन किया कि ‘महाराज! आजकल आपकी गौएं समीप ही आयी हुई हैं।' जनमेजय! इसके बाद कर्ण और शकुनि ने राजाओं में श्रेष्‍ठ जननायक धृतराष्‍ट्र से कहा- ‘कुरुराज! इस समय हमारी गौओं के स्‍थान रमणीय प्रदेशों में हैं। यह समय गायों और बछड़ों की गणना करने तथा उनकी आयु, रंग, जाति एवं नाम का ब्‍यौरा लिखने के लिये भी अत्‍यन्‍त उपयोगी है। राजन्! इस समय आपके पुत्र दुर्योधन के लिये हिंसक पशुओं के शिकार करने का भी उपयुक्‍त अवसर है। अत: आप इन्‍हें द्वैतवन में जाने की आज्ञा दीजिये’।

धृतराष्‍ट्र बोले– तात! हिंसक पशुओं का शिकार खेलने का प्रस्‍ताव सुन्‍दर है। गौओं की देख-भाल का काम भी अच्‍छा ही है; परंतु ग्‍वालों की बातों पर विश्‍वास नहीं करना चाहिये, यह नीति का वचन है, जिसका मुझे स्‍मरण हो आया है। मैंने सुना है कि नरश्रेष्‍ठ पाण्डव भी इन दिनों वहीं कहीं आसपास ठहरे हुए हैं; अत: तुम लोंगों को मैं स्‍वयं वहाँ जाने की आज्ञा नहीं दे सकता। राधानन्‍दन! पाण्‍डव छलपूर्वक हराये गये हैं। महान् वन में रहकर उन्‍हें बड़ा कष्‍ट भोगना पड़ा है। वे निरन्‍तर तपस्‍या करते रहे हैं और अब विशेष शक्ति सम्‍पन्‍न हो गये हैं। महारथी तो वे हैं ही। माना कि धर्मराज युधिष्ठिर क्रोध नहीं करेंगे, परन्‍तु भीमसेन तो सदा ही अमर्ष में भरे रहते हैं और राजा द्रुपद की पुत्री कृष्‍णा भी साक्षात अग्नि की ही मूर्ति है। तुम लोग तो अहंकार और मोह में चूर रहते ही हो; अत: उनका अपराध अवश्‍य करोगे। उस दशा में वे तुम्‍हें भस्‍म किये बिना नहीं छोड़ेंगे। क्‍योंकि उनमें तप:शक्ति विद्यमान है अथवा उन वीरों के पास अस्‍त्र-शस्‍त्रों की भी कमी नहीं है। तुम्‍हारे प्रति उनका क्रोध सदा ही बना रहता है। वे तलवार बांधे सदा एक साथ रहते हैं; अत: वे अपने शस्‍त्रों के तेज से भी तुम्‍हें दग्‍ध कर सकते हैं। यदि संख्‍या से अधिक होने के कारण तुमने ही किसी प्रकार उन पर चढ़ाई कर दी, तो यह भी तुम्‍हारी बड़ी भारी नीचता ही समझी जायेगी। मेरी समझ में तो तुम लोगों का पाण्‍डवों पर विजय पाना असम्‍भव ही है। महाबाहु धनंजय इन्‍द्रलोक में रह चुके हैं और वहां से दिव्‍यस्‍त्रों की शिक्षा लेकर वन में लौटे हैं। पहले जब अर्जुन को दिव्‍यास्‍त्र प्राप्‍त नहीं हुए थे, तभी उन्‍होंने सारी पृथ्‍वी को जीत लिया था।

अब तो महारथी अर्जुन दिव्‍यास्‍त्रों के विद्वान् हैं, ऐसी दशा में वे तुम्‍हें मार डालें, यह कौन बड़ी बात है? अथवा मेरी बात सुनकर तुम लोग वहाँ यदि अपने को काबू में रखते हुए सावधानी के साथ रह सको, तो भी यह विश्‍वास करके कि ये लोग सत्‍यवादी होने के कारण हमें कष्‍ट नहीं देंगे, वनवास से उद्विग्न हुए पाण्‍डवों के बीच में निवास करना तुम्‍हारे लिये दु:खदायी ही होगा अथवा यह भी असम्‍भव है कि तुम लोगों के कुछ सैनिक युधिष्ठिर का अपमान कर बैठें और तुम्‍हारे अनजान में किया गया यह अपराध तुम लोगों के लिये हानिकारक हो जाये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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