महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-20

सप्‍तविंश (27) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: सप्‍तविंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का संशप्‍तक सेना के साथ भयंकर युद्ध और उसके अधिकांश भाग का वध

  • संजय कहते हैं- महाबाहो! आप जो मुझसे युद्ध में अर्जुन के पराक्रम पूछ रहे हैं, उन्‍हें बताता हूँ। अर्जुन ने रणक्षेत्र में जो कुछ किया था, वह सुनिये। (1)
  • भगदत्‍त के विचित्र रूप से युद्ध करते समय वहाँ धूल उड़ती देखकर और हाथी के चिग्‍घाड़ने का शब्‍द सुनकर कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन ने श्रीकृष्‍ण से कहा। (2)
  • मधुसूदन! राजा भगदत्‍त अपने हाथी पर सवार जिस प्रकार उतावली के साथ युद्ध के लिये निकले थे, उससे जान पड़ता है निश्चय ही यह महान कोलाहल उन्‍हीं का है। (3)
  • 'मेरा तो यह विश्वास है कि वे युद्ध में इन्‍द्र से कम नही हैं। भगदत्‍त हाथी की सवारी में कुशल और गजारोही योद्धाओं में इस पृथ्वी पर सबसे प्रधान है।' (4)
  • और उनका वह गजश्रेष्‍ठ सुप्रतीक भी युद्ध में अपना शानी नहीं रखता है। वह सब शस्‍त्रों का उल्‍लंघन करके युद्ध में अनेक बार पराक्रम प्रकट कर चुका है। उसने परिश्रम को जीत लिया है। (5)
  • अनघ! वह सम्‍पूर्ण शस्‍त्रों के आघात तथा अग्नि के स्‍पर्श को भी सह सकने वाला है। आज वह अकेला ही समस्‍त पांडव सेना का विनाश कर डालेगा। (6)
  • हम दोनों के सिवा दूसरा कोई नहीं है, जो उसे बाधा देने में समर्थ हो। अत: आप शीघ्रतापूर्वक वहीं चलिये, जहाँ प्राग्‍ज्‍योतिषनरेश भगदत्‍त विद्यमान हैं। (7)
  • 'अपने हाथी के बल से युद्ध में घमंड दिखाने वाले और अवस्‍था में भी बड़े होने का अहंकार रखने वाले इन राजा भगदत्‍त को मैं देवराज इन्‍द्र का प्रिय अतिथि बनाकर स्‍वर्गलोक भेज दूँगा।' (8)
  • सव्‍यसाची अर्जुन के इस वचन से प्रेरित हो श्रीकृष्‍ण उस स्‍थान पर रथ लेकर गये, जहाँ भगदत्‍त पाण्‍डव सेना का संहार कर रहे थे। (9)
  • अर्जुन को जाते देख पीछे से चौदह हजार संशप्तक महारथी उन्‍हें ललकारते हुए चढ़ आये। (10)
  • उनमें दस हजार महारथी तो त्रिगर्तदेश के थे और चार हजार भगवान श्रीकृष्‍ण के सेवक[1] थे। (11)
  • आर्य! राजा भगदत्‍त के द्वारा अपनी सेना को विदीर्ण होती देखकर तथा पीछे से संशप्‍तकों की ललकार सुनकर उनका हृदय दुविधा में पड़ गया। (12)
  • वे सोचने लगे– आज मेरे लिये कौन-सा कार्य श्रेयस्‍कर होगा। यहाँ से संशप्‍तकों की ओर लौट चलूँ अथवा युधिष्ठिर के पास जाऊँ। (13)
  • कुरुश्रेष्‍ठ! बुद्धि से इस प्रकार विचार करने पर अर्जुन के मन में यह भाव अत्‍यन्‍त दृढ़ हुआ कि संशप्‍तकों के वध का ही प्रयत्‍न करना चाहिये। (14)
  • श्रेष्‍ठ वानर-चिह्न से सुशोभित ध्‍वजा वाले इन्‍द्रकुमार अर्जुन उपयुक्‍त बात सोचकर सहसा लौट पड़े। वे रणक्षेत्र में अकेले ही हजारों रथियों का संहार करने को उद्यत थे। (15)
  • अर्जुन के वध का उपाय सोचते हुए दुर्योधन और कर्ण दोनों के मन में यही विचार उत्‍पन्‍न हुआ था। इसलिये उसने युद्ध को दो भागों में बाँट दिया। (16)
  • पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन एक बार दुविधा में पड़कर चंचल हो गये थे, तथापि नरश्रेष्‍ठ संशप्तक वीरों के वध का निश्चय करके उन्‍होंने उस दुविधा को मिथ्‍या कर दिया था। (17)
  • राजन! तदनन्‍तर संशप्‍तक महारथियों ने अर्जुन पर झुकी हुई गाँठ वाले एक लाख बाणों की वर्षा की। (18)
  • महाराज! उस समय न तो कुन्‍तीकुमार अर्जुन, न जर्नादन श्रीकृष्‍ण, न घोड़े और न रथ ही दिखायी देते थे। सब-के-सब वहाँ बाणों के ढेर से आच्‍छादित हो गये थे। (19)
  • उस अवस्‍था में भगवान जनार्दन पसीने-पसीने हो गये। उन पर मोह-सा छा गया। यह सब देख अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र से उन सबको अधिकांश में नष्‍ट कर दिया। (20)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नारायणी सेना के सैनिक

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