महाभारत वन पर्व अध्याय 121 श्लोक 1-18

एकविंशत्‍यधि‍कशततम (121) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: एकविंशत्‍यधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


राजा गय के यज्ञ की प्रशंसा, पयोष्णी, वैदूर्य पर्वत और नर्मदा के माहात्म्य तथा च्यवन-सुकन्या के चरित्र का आरम्भ

लोमश ऋषि कहते हैं- युधिष्ठिर! सुना जाता है कि‍ इस पयोष्णी नदी के तट पर राजा नृग ने यज्ञ करके सोमरस द्वारा देवराज इन्द्र को तृप्त कि‍या था। उस समय इन्‍द्र पूर्णत: तृप्‍त होकर आनन्‍दमय हो गये थे। यहीं इन्‍द्र सहि‍त देवताओं ने ओर प्रजापति‍यों ने भी प्रचुर दक्षि‍णा से युक्‍त अनेक प्रकार के बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा भगवान का यजन कि‍या है। अमूर्तरया के पुत्र राजा गय ने भी यहाँ सात अश्वमेध यज्ञों का अनुष्‍ठान करके उनसे सोमरस के द्वारा वज्रधारी इन्‍द्र को संतुष्‍ट कि‍या था। यज्ञ में जो वस्‍तुयें नि‍यमि‍त रूप से काष्‍ठ और मि‍ट्टी की बनी हुई होती हैं, ये सब की सब राजा गय के उक्‍त सातों यज्ञों में सुवर्ण से बनायी गयी थीं। प्राय: यज्ञों में चषाल[1], यूप[2], चमस[3], स्‍थाली[4], पात्री[5], स्नुक्‌[6] और स्रुवा[7] -ये सात साधन उपयोग में लाये जाते हैं। राजा गय के पूर्वोक्‍त सातों यज्ञों में ये सभी उपकरण सुवर्ण के ही थे, ऐसा सुना जाता है।

सात यूपों में से प्रत्‍येक के ऊपर सात-सात चषाल थे। युधि‍ष्‍ठि‍र! उन यज्ञों में जो चमकते हुए सुवर्णमय यूप थे, उन्हें इन्‍द्र आदि‍ देवताओं ने स्‍वयं खड़ा कि‍या था। राजा गय के उन उत्‍तम यज्ञों में इन्‍द्र सोमपान करके ओर ब्राह्मण बहुत सी दक्षि‍णा पाकर हर्षोन्मत्त हो गये थे। ब्राह्मणों ने दक्षिणा में जो बहुसंख्‍यक धनराशि‍ प्राप्‍त की थी, उसकी गणना नहीं की जा सकती थी। महाराज! राजा गय ने सातों यज्ञों में सदस्‍यों को जो असंख्‍य धन प्रदान कि‍या था, उसकी गणना उसी प्रकार नहीं हो सकती थी, जैसे जगत में कोई बालू के कणों, आकाश के तारों और वर्षा की धाराओं को नहीं गि‍न सकता। उपर्युक्‍त बालू के कण आदि‍ कदाचि‍त गि‍ने भी जा सकते हैं; परंतु दक्षि‍णा देने वाले राजा गय की दक्षि‍णा की गणना करना सम्‍भव नहीं है। उन्‍होंने विश्वकर्मा की बनायी हुई सुवर्णमयी गौएं देकर वि‍भि‍न्‍न दि‍शाओं से आये हुए ब्राह्मणों को संतुष्‍ट कि‍या था।

युधिष्ठिर! भि‍न्‍न-भि‍न्‍न स्‍थानों में यज्ञ करने वाले महामना राजा गय के राज्‍य की थोड़ी ही भूमि‍ ऐसी बच गयी थी, जहाँ यज्ञ के मण्‍डल न हों। भारत! उस यज्ञकर्म के प्रभाव से गय ने इन्द्रादि‍ लोकों को प्राप्‍त कि‍या। जो इस पयोष्‍णी नदी में स्‍नान करता है, वह भी राजा गय के समान पुण्‍यलोक को भागी होता है। अत: राजेन्‍द्र! तुम अपने भाइयों सहि‍त इसमें स्‍नान करके सब पापों से मुक्‍त हो जाओगे।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- नि‍ष्‍पाप जनमेजय! पाण्‍डवप्रवर नरश्रेष्‍ठ युधि‍ष्‍ठि‍र भाइयों सहि‍त पयोष्‍णी नदी में स्‍नान करके वैदूर्य पर्वत और महानदी नर्मदा के तट पर जाने का उद्देश्‍य लेकर वहाँ से चल दि‍ये और वे तेजस्‍वी नरेश सब भाइयों को साथ लि‍ये यथासमय अपने गन्‍तव्‍य स्‍थान पर पहुँच गये। वहाँ भगवान लोमश मुनि‍ ने उनसे समस्‍त रमणीय तीर्थों और पवि‍त्र देवस्‍थानों का परि‍चय कराया। तत्‍पश्‍चात राजा ने अपनी सुवि‍धा और प्रसन्‍नता के अनुसार सहस्रों ब्राह्मणों को धन का दान कि‍या और भाइयों सहि‍त उन सब स्‍थानों की यात्रा की।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यूप के ऊपर का गोलाकार काष्ठ
  2. यज्ञ स्तम्भ
  3. सोमपान का पात्र
  4. बटलोई
  5. पकी-पकाई रखने का सामग्री पात्र
  6. हविष्य अर्पण करने का उपकरण
  7. घृत आदि की आहुति आदि डालने का साधन

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः