महाभारत विराट पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-16

दशम (10) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: दशम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


सहदेव का राजा विराट के साथ वार्तालाप और गौओं की देखभाल के लिये उनकी नियुक्ति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर सहदेव भी ग्वालों का परम उत्तम वेष बनाकर उन्हीं की भाषा में बोलते हुए राजा विराट के यहाँ गये। राजभवन के पास ही गोशाला थी; वहाँ पहुँचकर वे खड़े हो गये। राजा उन्हें दूर से ही देखकर आश्चर्य में पड़ गये और उनके पास कुछ लोगों को भेजा। (अपने सेवकों के बुलाने पर उनके साथ) दिव्य कान्ति से सुशोभित नरश्रेष्ठ सहदेव को राजसभा की ओर आते देख राजा विराट स्वयं उठकर उनके पास चले गये और कुरुकुल को आनन्द देने वाले सहदेव से पूछने लगे- ‘पुरुषप्रवर! तुम किसके पुत्र हो, कहाँ से आये हो और क्या करना चाहते हो; अतः अपना ठीक-ठीक परिचय दो’।

शत्रुओं को संताप देने वाले राजा विराट के निकट पहुँचकर सहदेन मेघों की घनघोर घटा के समान गम्भीर स्वर में बोले- ‘महाराज! मैं वैश्य हूँ। मेरा नाम अरिष्टनेमि है। नृपश्रेष्ठ! मैं कुरुवंशशिरोमणि पाण्डवों के यहाँ गौओं की गणना तथा देखभाल करता हूँ। अब आपके यहाँ रहना चाहता हूँ; क्योंकि राजाओं में सिंह के समान पाण्डव कहाँ हैं? यह मैं नहीं जानता। बिना काम किये जीविका चल नहीं सकती और आपके सिवा दूसरा कोई मुझे पसंद नहीं है’।

विराट ने कहा- शत्रुतापन! मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय हो। समुद्र से घिरी हुई समूची पृथ्वी के सम्राट की भाँति तुम्हारा भव्य रूप है; अतः मुझे अपना ठीक-ठीक परिचय दो। यह वैश्य कर्म (गोपालन) तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम किस राजा के राज्य से यहाँ आये हो और तुमने किस कला की शिक्षा प्रापत की है? बोलो, हमारे यहाँ कैसे सदा के लिये रह सकोगे? और यहाँ तुम्हारा वेतन क्या होगा?

सहदेव बोले- राजन्! पाँचों पाण्डवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर हैं। उनके पास एक प्रकार की गौओं के आठ लाल झुंड थे और प्रत्येक झुंड में सौ-सौ गायें थीं। इनके सिवा, दूसरे प्रकार की गौओं के एक लाख झुंड तथा तीसरे प्रकार की गौओं के उनसे दुगुने अर्थात् दो लाख झुंड थे। (प्रत्येक झुंड में सौ-सौ गायें थीं) पाण्डवों की उन गौओं का मैं गणक और निरीक्षक था। वे लोग मुझे ‘तन्तिपाल’ कहा करते थे। चारों ओर दस योजन की दूरी में जितनी गौएँ हों; उनकी भूत, वर्तमान और भविष्य में जितनी संख्या थी, है और होगी, उन सबको में जानता हूँ। गौओं के सम्बन्ध में तीनों काल में होने वाली कोई ऐसी बात नहीं है, जो मुझे ज्ञात न हो। महात्मा राजा युधिष्ठिर को मेरे गुण भलीभाँति विदित थे। वे कुरुराज युधिष्ठिर सदा मेरे ऊपर सुतुष्ट रहते थे। किन-किन उपायों से गौओं की संख्या शीघ्र बढ़ जाती है और उनमें कोई रोग पैदा नहीं होता, यह सब मुझे ज्ञात है। महाराज! ये ही कलाएँ मुझमें विद्यमान हें। इनके सिवा मैं उन उत्तम लक्षणों वाले बैलों को भी जानता हूँ, जिनके मूत्र के सूँघ लेने मात्र से वन्ध्या स्त्री भी गर्भधारण एवं संतान उत्पन्न करने योग्य हो जाती है।


विराट ने कहा- तन्तिपाल! मेरे यहाँ एक लाख पशु संग्रहीत हैं। उनमें से कुछ तो एक ही रंग के हैं और कुछ मिश्रित रंगों के। वे सब विभिन्न गुणों से संयुक्त हैं। मैं उन पशुओं और पशुपालों को आज से तुम्हारे हाथों में सौंपता हूँ। मेरे पशु अब से तुम्हारे ही अधीन रहेंगे।

वैशम्पायन जी कहते हैं- इस प्रकार प्रजापालक राजा विराट से अपरिचित रहकर नरश्रेष्ठ सहदेव वहीं गोशाला में रहने लगे। दूसरे लोग भी उन्हें किसी तरह पहचान न सके। राजा ने उनके लिये उनकी इच्छा के अनुसार भरण-पोषण की व्यवस्था कर दी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में सहदेव प्रवेश विषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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