षट्पंचाशत्तम (56) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षट्पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण और भीष्म को प्रणाम करके युधिष्ठिर ने समस्त गुरुजनों की अनुमति ली इस प्रकार प्रश्न किया। युधिष्ठिर बोले- पितामह! धर्मज्ञ विद्वानों की यह मान्यता है कि राजाओं का धर्म श्रेष्ठ है। मैं इसे बहुत बड़ा भार मानता हूँ, अतः भूपाल! आप मुझे राजधर्म का उपदेश कीजिये। पितामह! राजधर्म सम्पूर्ण जीवजगत का परम आश्रय है; अतः आप राजधर्मों का ही विशेष रूप से वर्णन कीजिये। कुरुनन्दन! राजा के धर्मों में धर्म, अर्थ और काम तीनों का समावेश है, और यह स्पष्ट है कि सम्पूूर्ण मोक्षधर्म भी राजधर्म में निहित है। जैसे घोड़ों को काबू में रखने के लिये लगाम और हाथी को वश में करने के लिये अकुंश है, उसी प्रकार समस्त संसार को मर्यादा के भीतर रखने के लिये राजधर्म आवश्यक है; वह उसके लिये प्रग्रह अर्थात् उसको नियन्त्रित करने में समर्थ माना गया है।
प्राचीन राजर्षियों द्वारा सेवित उस राजधर्म में यदि राजा मोहवश प्रमाद कर बैठे तो संसार की व्यवस्था ही बिगड़ जाय और सब लोग दुखी हो जाएँ। जैसे सूर्यदेव उदय होते ही घोर अन्धकार का नाश कर देते है, उसी प्रकार राजधर्म मनुष्यों के अशुभ आचरणों का, जो उन्हें पुण्य लोकों से वंचित कर देते है, निवारण करता है। अतः भरतश्रेष्ठ पितामह! आप सबसे पहले मेरे लिये राजधर्मों का ही वर्णन कीजिये; क्योंकि आप धर्मात्मा में श्रेष्ठ है। परंतप पितामह! हम सब लोगों को आप से ही शास्त्रों के उत्तम सिद्धान्त का ज्ञान हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण भी आपको ही बुद्धि में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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