एकोनषष्टितम (59) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण के पास पहुँचकर वे सब महारथी बिखर गये, ठीक वैसे ही, जैसे जल के प्रवाह किसी पर्वत के पास पहुँचकर सम्पूर्ण दिशाओं में फैल जाते हैं। महाराज! उस समय उन दोनों में रोमांचकारी युद्ध होने लगा। धृष्टद्युम्न ने समरांगण में झुकी हुई गांठवाले बाण से राधापुत्र कर्ण को चोट पहुँचायी और कहा-‘खड़ा रह, खड़ा रह। तब महारथी कर्ण ने अपने विजय नामक श्रेष्ठ धनुष को कम्पित करके धृष्टद्युम्न के धनुष और विषधर सर्प के समान विषैले बाणों को भी काट डाला। फिर क्रोध में भरकर नौ बाणों से धृष्टद्युम्न को भी घायल कर दिया। निष्पाप नरेश! वे बाण महामना धृष्टद्युम्न सुवर्ण निर्मित कवच को छेदकर उनके रक्त से रचित हो इन्द्र गोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ों के समान सुशोभित होने लगे। महारथी धृष्टद्युम्न उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा धनुष और विषधर सर्प के समान विषेले बाण हाथ में लेकर झुकी हुई गांठवाले सत्तर बाणों से कर्ण को बींध डाला। राजन! इसी प्रकार कर्ण ने समरांगण में विषधर सर्पों के समान विषैले बाणों द्वारा शत्रुओं को संताप देने वाले धृष्टद्युम्न को आच्छादित कर दिया। फिर द्रोणशत्रु महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न ने भी कर्ण को पैने बाणों से घायल कर दिया। तब कर्ण ने अत्यन्त कुपित हो धृष्टद्युम्न पर द्वितीय मृत्युदण्ड के समान एक सुवर्णभूषित बाण चलाया। प्रजानाथ! नरेश! सहसा आते हुए उस भयंकर बाण से सात्यकि ने सिद्धहस्त योद्धा की भाँति सौ टुकड़े कर डाले। प्रजापालक नरेश! सात्यकि के बाणों से अपने बाण को नष्ट हुआ देख कर्ण ने चारों ओर से बाण बरसाकर सात्यकि को ढक दिया। साथ ही समरांगण में सात नाराचों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। तब सात्यकि ने भी सुवर्णभूषित बाणों से कर्ण को घायल करके बदला चुकाया। जब सात्यकि और कर्ण का आमना-सामना हो रहा था, तब नेत्रों से देखने और कानों से सुनने पर भी भय उत्पन्न करने वाला घोर एवं विचित्र युद्ध छिड़ गया, जो सब ओर से देखने ही योग्य था। नरेश्वर! समरभूमि में कर्ण और सात्यकि का वह कर्म देखकर समस्त प्राणियों के रोंगटे खड़े हो गये। इसी समय शत्रुओं के बल और प्राणों का नाश करने वाले शत्रुसूदन महाबली धृष्टद्युम्न के पास द्रोणकुमार अश्वत्थामा आ पहुँचा। शत्रुओं की राजधानी विजय पाने वाला द्रोणपुत्र अश्वत्थामा वहाँ पहुँचते ही अत्यन्त कुपित होकर बोला ‘ब्रह्महत्या करने वाले पापी। खड़ा रह, खड़ा रह, आज तू मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा। ऐसा कहकर शीघ्रता करने वाले प्रयत्नशील महारथी अश्वत्थामा ने अत्यन्त तेज, घोर एवं पैने बाणों द्वारा यथाशक्ति विजय के लिये प्रयत्न करने वाले वीर धृष्टद्युम्न को ढक दिया। आर्य! जैसे द्रोणाचार्य समरभूमि में धृष्टद्युम्न को देखकर मन ही मन खिन्नं हो उसे अपनी मृत्यु मानते थे, उसी प्रकार शत्रुवीरों का संहार करने वाले धृष्टद्युम्न भी रणक्षेत्र में अश्वत्थामा को देखकर अप्रसन्न हो उसे अपनी मृत्यु समझते थे। वे अपने आपको समरभूमि में शस्त्र द्वारा अवघ्य मानकर बड़े वेग से अश्वत्थामा के सामने आये, मानो प्रलय के समय काल ही काल पर टूट पड़ा हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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