महाभारत आदि पर्व अध्याय 157 श्लोक 1-17

सप्‍तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्‍याय: आदि पर्व (बकवध पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: सप्‍तञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्मणी का स्‍वयं मरने के लिये उद्यत होकर पति से जीवित रहने के लिये अनुरोध करना

ब्राह्मणी बोली- प्राणनाथ! आपको साधारण मनुष्‍यों की भाँति कभी संताप नहीं करना चाहिये। आप विद्वान हैं, आपके लिये यह संताप का अवसर नहीं है। एक-न-एक दिन संसार में सभी मनुष्‍यों को अवश्‍य मरना पड़ेगा। अत: जो बात अवश्‍य होने वाली है, उसके लिये यहाँ शोक करने की आवश्‍यकता नहीं है। पत्‍नी,पुत्र और पुत्री- ये सब अपने लिये अभीष्ट होते हैं। आप उत्तम बुद्धि विवेक का आश्रय लेकर शोक-संताप छोड़िये। मैं स्‍वयं वहाँ (राक्षस के समीप) चली जाऊंगी। पत्‍नी के लिये लोक में सबसे बढ़कर यही सनातन कर्तव्‍य है कि वह अपने प्राणों को भी निछावर करके पति की भलाई करे। पति के हित के लिये किया हुआ मेरा वह प्राणोत्‍सर्गरुप कर्म आपके लिये तो सुखकारक होगा ही, मेरे लिये भी परलोक में अक्षय सुख का साधक और इस लोक में यश की प्राप्ति कराने वाला होगा। यह सबसे बड़ा धर्म है, जो मैं आपसे बता रही हूँ। इसमें आपके लिये अधिक से अधिक स्‍वार्थ और धर्म का लाभ दिखायी देता है। जिस उद्देश्‍य से पत्‍नी की अभिलाषा की जाती हैं, आपने वह उद्देश्‍य मुझसे सिद्ध कर लिया है। एक पुत्री और एक पुत्र आपके द्वारा मेरे गर्भ से उत्‍पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार आपने मुझे भी उऋण कर दिया है। इन दोनों संतानों का पालन-पोषण और संरक्षण करने में आप समर्थ हैं। आपकी तरह मैं इन दोनों के पालन-पोषण तथा रक्षा की व्‍यवस्‍था नहीं कर सकूंगी। मेरे सर्वस्‍व स्‍वामी प्राणेश्‍वर! आपके न रहने पर मेरे इन दोनों बच्‍चों की क्‍या दशा होगी?

मैं किस तरह इन बालकों का भरण-पोषण करुंगी? मेरा पुत्र अभी बालक है, आपके बिना मैं अना‍थ विधवा सन्‍मार्ग पर स्थित रहकर इन दोनों बच्‍चों को कैसे जिलाऊंगी। जो आपके यहाँ सम्‍बन्‍ध करने के सर्वथा अयोग्‍य हैं, ऐसे अहंकारी और घमंडी लोग जब मुझसे इस कन्‍या को मांगेंगे, तब मैं उनसे इसकी रक्षा कैसे कर सकूंगी। जैसे पृथ्‍वी पर डाले हुए मांस के टुकड़े को लेने के लिये झपटते हैं, उसी प्रकार सब लोग विधवा स्‍त्री को वश में करना चाहते हैं। द्विजश्रेष्ठ! दुराचारी मनुष्‍य जब बार-बार मुझसे याचना करते हुए मुझे मर्यादा से विचलित करने की चेष्‍टा करेंगे, उस समय मैं श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा अभिलषित मार्ग पर स्थिर नहीं रह सकूंगी। आपके कुल की इस एकमात्र निपराध बालिका को मैं बाप-दादों के द्वारा पालित धर्म मार्ग पर लगाये रखने में कैसे समर्थ होऊंगी। आप धर्म के ज्ञाता हैं, आप जैसे अपने बालक को सद्गुणी बना सकते हैं, उस प्रकार मैं आपके न रहने पर सब ओर से आश्रयहीन हुए इस अनाथ बालक में वाञ्छनीय उत्तम गुणों का आधान कैसे कर सकूंगी। जैसे अनधिकारी शुद्र वेद की श्रुति को प्राप्‍त करना चाहता हो, उसी प्रकार अयोग्‍य पुरुष मेरी अवहेलना करके आपकी इस अनाथ बालिका को भी ग्रहण करना चाहेंगे। आपके ही उत्तम गुणों से सम्‍पन्‍न अपनी इस पुत्री को यदि मैं उन अयोग्‍य पुरुषों के हाथ में न देना चाहूंगी तो वे बलपूर्वक इसे उसी प्रकार ले जायंगें, जैसे कौए यज्ञ से हविष्‍य का भाग लेकर उड़ जायं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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