पन्चाशत्तम (50) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
महाभारत: शल्य पर्व: पन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय! तदनन्तर कुछ काल तक ऐसा हुआ कि देवल मुनिवर जैगीषव्य को हर समय नहीं देख पाते थे। धर्म के ज्ञाता बुद्धिमान संन्यासी जैगीषव्य केवल भोजन या भिक्षा लेने के समय देवल के पास आते थे। भारत! संन्यासी के रूप में वहाँ आये हुए महामुनि जैगीषव्य को देखकर देवल उनके प्रति अत्यन्त गौरव और महान प्रेम प्रकट करते तथा यथाशक्ति शास्त्रीय विधि से एकाग्रचित्त हो उनका पूजन (आदर-सत्कार) किया करते थे। बहुत वर्षों तक उन्होंने ऐसा ही किया। नरेश्वर! एक दिन महातेजस्वी जैगीषव्य मुनि को देखकर महात्मा देवल के मन में बड़ी भारी चिन्ता हुई। उन्होंने सोचा, ‘इनकी पूजा करते हुए मुझे बहुत वर्ष बीत गये; परंतु ये आलसी भिक्षु आज तक एक बात भी नहीं बोले’। यही सोचते हुए श्रीमान देवल मुनि कलश हाथ में लेकर आकाश मार्ग से समुद्र तट की ओर चल दिये। भारत! नदीपति समुद्र के पास पहुँचते ही धर्मात्मा देवल ने देखा कि जैगीषव्य वहाँ पहले से ही गये हैं। तब तो अमित तेजस्वी महर्षि असित देवल को चिन्ता के साथ-साथ आश्चर्य भी हुआ। वे सोचने लगे, ‘ये भिक्षु यहाँ पहले ही कैसे आ पहुँचे? इन्होंने तो समुद्र में स्नान का कार्य भी पूर्ण कर लिया’। जनमेजय! फिर उन्होंने समुद्र में विधिपूर्वक स्नान करके पवित्र हो अपने योग्य मन्त्र का जप किया। जप आदि नित्य कर्मपूर्ण करके श्रीमान देवल जल से भरा हुआ कलश लेकर अपने आश्रम पर आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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