महाभारत आदि पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-21

अष्टविंश (28) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: अष्टविंश अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
गरुड़ का अमृत के लिए जाना और अपनी माता की आज्ञा के अनुसार निषादों का भक्षण करना

उग्रश्रवा जी कहते हैं- सर्पों की यह बात सुनकर गरुड़ अपनी माता से बोले- ‘मां! मैं अमृत लाने के लिये जा रहा हूँ, किन्तु मेरे लिये भोजन-सामग्री क्या होगी? यह मैं जानना चाहता हूँ। विनता ने कहा- समुद्र के बीच में एक टापू है, जिसके एकान्त प्रदेश में निषादों (जीवहिंसकों) का निवास है। वहाँ सहस्रों निषाद रहते हैं। उन्हीं को मारकर खा लो और अमृत ले आओ। किन्तु तुम्हें किसी प्रकार ब्राह्मण को मारने का विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि ब्राह्मण समस्त प्राणियों के लिये अवध्य है। वह अग्नि के समान दाहक होता है। कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि, सूर्य, विष एवं शस्त्र के समान भयंकर होता है। ब्राह्मण को समस्त प्राणियों का गुरु कहा गया है। इन्हीं रूपों में सत्पुरुषों के लिये ब्राह्मण आदरणीय माना गया है। तात! तुम्हें क्रोध आ जाये तो भी ब्राह्मण की हत्या से सर्वथा दूर रहना चाहिये। ब्राह्मणों के साथ किसी प्रकार का द्रोह नहीं करना चाहिये। अनघ! कठोर व्रत का पालन करने वाला ब्राह्मण क्रोध में आने पर अपराधी को जिस प्रकार जलाकर भस्म कर सकते। इस प्रकार विविध चिह्नों के द्वारा तुम्हें ब्राह्मण को पहचान लेना चाहिये। ब्राह्मण समस्त प्राणियों का अग्रज, सब वर्णों मे श्रेष्ठ, पिता और गुरु है।

गरुड़ ने पूछा- मां! ब्राह्मण का रूप कैसा होता है? उसका शील स्वभाव कैसा है? तथा उसमें कौन सा पराक्रम है। वह देखने में अग्नि जैसा जान पड़ता है। अथवा सौम्य दिखायी देता है? मां! जिस प्रकार शुभ लक्षणों द्वारा मैं ब्राह्मण को पहचान सकूँ, वह सब उपाय मुझे बताओ। विनता बोली- बेटा! जो तुम्हारे कण्ठ में पड़ने अंगार की तरह जलने लगे और मानो बंसी का काँटा निगल लिया गया हो, इस प्रकार कष्ट देने लगे, उसे वर्णों में श्रेष्ठ ब्राह्मण समझाना। क्रोध में भरे होने पर भी तुम्हें ब्रह्म हत्या नहीं करनी चाहिये। विनता ने पुत्र के प्रति स्नहे होने के कारण पुनः इस प्रकार कहा- ‘बेटा! जो तुम्हारे पेट में पच न सके, उसे ब्राह्मण जानना।' पुत्र के प्रति स्नेह होने के कारण विनता ने पुनः इस प्रकार कहा। वह पुत्र के अनुपम बल को जानती थी तो भी नागों द्वारा ठगी जाने के कारण बड़े भारी दुःख से आतुर हो गयी थी। अतः अपने पुत्र को प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देने लगी। विनता ने कहा- बेटा! वायु तुम्हारे दोनों पंखों की रक्षा करें, चन्द्रमा और सूर्य पृष्ठ भाग का संरक्षण करें। अग्निदेव तुम्हारे सिर की और वसुगण तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर की सब ओर से रक्षा करें। पुत्र! मैं भी तुम्हारे लिये शान्ति एवं कल्याण साधक कर्म में संलग्न हो यहाँ निरन्तर कुशल मानती रहूँगी।

वत्स! तुम्हारा मार्ग विघ्न रहित हो, तुम अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये यात्रा करो। बात सुनकर महाबली गरुड़ पंख पसारकर आकाश में उड़ गये तथा क्षुधातुर काल या दूसरे यमराज की भाँति उन निषादों के पास जा पहुँचे। उन निषादों का संहार करने के लिये उन्होंने उस समय इतनी अधिक धूल उड़ायी, जो पृथ्वी के आकाश तक छा गयी। वहाँ समुद्र की कुक्षि में जो जल था, उसका शोषण करके उन्होंने समीपवर्ती पर्वतीय वृक्षों को भी विकम्पित कर दिया। इसके बाद पक्षिराज ने अपना मुख बहुत बड़ा कर लिया और निषादों का मार्ग रोककर खड़े हो गये। तदनन्तर वे निषाद उतावली में पड़कर उसी ओर भागे, जिधर सर्पभोजी गरुड़ का मुख था। जैसे आँधी से कम्पित वृक्ष वाले वन में पवन और धूल से विमोहित एवं पीड़ित सहस्रों पक्षी उन्मुक्त आकाश में उड़ने लगते हैं, उसी प्रकार हवा और धूल की वर्षा से बेसुध हुए हजारों निषाद गरुड़ के खुले हुए अत्यन्त विशाल मुख में समा गये। तत्पश्चात शत्रुओं को संताप देने वाले, अत्यन्त चपल महाबली और क्षुधातुर पक्षिराज गरुड़ ने मछली मारकर जीविका चलाने वाले उन अनेकानेक निषादों का विनाश करने के लिये अपने मुख को संकुचित कर लिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में गरुड़चरितविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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