चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: चतु:सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
संजय कहते हैं– भरतनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण का यह भाषण सुनकर अर्जुन एक ही क्षण में शोकरहित एवं हर्ष और उत्साह से सम्पन्न हो गये। तत्पश्चात धनुष की प्रत्यचां को साफ करके उन्होंने शीघ्र ही गाण्डीव धनुष की टंकार की और कर्ण के विनाश का दृढ़ निश्चय कर लिया। फिर वे भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले– गोविन्द! जब आप मेरे स्वामी और संरक्षक हैं, तब युद्ध में मेरी विजय निश्चित ही है। संसार के भूत और भविष्य का निर्माण करने वाले आप ही हैं। जिसके ऊपर आप प्रसन्न हैं, उसकी (अर्थात मेरी) विजय में आज क्या संदेह है। श्रीकृष्ण! आपकी सहायता मिलने पर तो मैं युद्ध के लिये सामने आये हुए तीनों लोकों को भी परलोक का पथिक बना सकता हूँ, फिर इस महासमर में कर्ण को जीतना कौन बड़ी बात है। जनार्दन! मैं समरभूमि में निर्भय से विचरते हुए कर्ण को और भागती हुई पांचालों की सेना को भी देख रहा हूँ। श्रीकृष्ण! वार्ष्णेय! सब ओर से प्रज्वलित होने वाले भार्गवास्त्र पर भी मेरी दृष्टि है, जिसे कर्ण ने उसी तरह प्रकट किया है, जैसे इन्द्र वज्र का प्रयोग करते हैं। निश्चय ही यह वह संग्राम है, जहाँ कर्ण मेरे हाथ से मारा जाएगा और जब तक यह पृथ्वी विद्यमान रहेगी, तब तक समस्त प्राणी इसकी चर्चा करेंगे। श्रीकृष्ण! आज मेरे हाथ से प्रेरित और गाण्डीव धनुष से मुक्त हुए विकर्ण नामक बाण कर्ण को क्षत-विक्षत करते हुए उसे यमलोक पहुँचा देंगे। आज राजा धृतराष्ट्र अपनी उस बुद्धि का अनादर करेंगे, जिसके द्वारा उन्होंने राज्य के अनधिकारी दुर्योधन को राजा के पद पर अभिषिक्त कर दिया था। महाबाहो! आज धृतराष्ट्र अपने राज्य से, सुख से, लक्ष्मी से, राष्ट्र से, नगर से और अपने पुत्रों से बिछुड़ जायेंगे। श्रीकृष्ण! जो गुणवान से द्वेष करता और गुणहीन को राजा बनाता है, वह नरेश विनाशकाल उपस्थित होने पर शोकमग्न हो पश्चाताप करता है। जनार्दन! जैसे कोई पुरुष आम के विशाल वन को काटकर उसके दुष्परिणाम को उपस्थित देख अत्यन्त दुखी हो जाता है, उसी प्रकार आज सूतपुत्र के मारे जाने पर राजा दुर्योधन निराश हो जायेगा। श्रीकृष्ण! मैं आपसे सच्ची बात करता हूँ। आज कर्ण का वध हो जाने पर दुर्योधन अपने राज्य और जीवन दोनों से निराश हो जाएगा। आज मेरे बाणों से कर्ण के शरीर को टूक-टूक हुआ देखकर राजा दुर्योधन सन्धि के लिये कहे हुए आपके वचनों का स्मरण करे। श्रीक़ृष्ण! आज सुबलपुत्र जुआरी शकुनि को यह मालूम हो जाए कि मेरे बाण ही दाँव हैं, गाण्डीव धनुष ही पासा है और मेरा रथ ही मण्डल (चौपड़ के खाने) हैं। गोविन्द! आज मैं अपने पैने बाणों से कर्ण को मारकर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर के चिन्ता जनित जागरण के स्थायी रोग को दूर कर दूँगा। आज कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर मेरे द्वारा सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर प्रसन्नचित्त हो दीर्घकाल के लिये संतुष्ट एवं सुखी हो जायेंगे। आज मैं ऐसा अनुपम और अजेय बाण छोडूँगा, जो कर्ण को उसके प्राणों से वंचित कर देगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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