अष्टनवत्यधिकशततम (198) अध्याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: अष्टनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्डवों से सम्बन्ध हो जाने पर राजा द्रुपद को देवताओं से भी किसी प्रकार का कुछ भी भय नहीं रहा, फिर मनुष्यों से तो हो ही कैसे सकता था। महात्मा द्रुपद के कुटुम्ब को स्त्रियां कुन्ती के पास आकर अपने नाम ले-लेकर उनके चरणों में मस्तक नवाकर प्रणाम करने लगीं। कृष्णा भी रेशमी साड़ी पहने मांगलिक कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् सास के चरणों में प्रणाम करके उनके सामने हाथ जोड़ विनीत भाव से खड़ी हुई। सुन्दर रुप तथा उत्तम लक्षणों से सम्पन्न, शील और सदाचार से सुशोभित अपनी बहू द्रौपदी को सामने देख कुन्ती देवी उसे प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देती हुई बोली- ‘बेटी! जैसे इन्द्राणी, इन्द्र में, स्वाहा अग्नि में, रोहिणी चन्द्रमा में, दमयन्ती नल में, भद्रा कुबेर में, अरुन्धती वसिष्ठ में तथा लक्ष्मी भगवान् नारायण में भक्तिभाव एवं प्रेम रखती हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने पतियों में अनुरक्त रहो। भद्रे! तुम अनन्त सौख्य में सम्पन्न होकर दीर्घजीवी तथा वीर पुत्रों को जननी बनो। सौभाग्यशालिनी, भोग सामग्री से सम्पन्न, पति के साथ यज्ञ में बैठने वाली तथा पतिव्रता होओ। अपने घर पर आये हुए अतिथियों, साधु पुरुषों, बड़े-बूढ़ों, बालकों तथा गुरुजनों का यथायोग्य सत्कार करने में ही तुम्हारा प्रत्येक वर्ष बीते। तुम्हारे पति कुरु-जांगल देश के प्रधान-प्रधान राष्ट्रों तथा नगरों के राजा हों और उनके साथ ही रानी के पद पर तुम्हारा अभिषेक हो। धर्म के प्रति तुम्हारे हृदय में स्वाभाविक स्नेह हो। तुम्हारे महाबली पतियों द्वारा पराक्रम से जीती हुई इस समूची पृथ्वी को तुम अश्वमेध नामक महायज्ञ में ब्राह्मणों के हवाले कर दो। कल्यामणमयी गुणवती बहू! पृथ्वी पर जितने गुणवान् रत्न हैं, वे सब तुम्हें प्राप्त हों और तुम सौ वर्ष तक सुखी रहो। बहू! आज तुम्हें वैवाहिक रेशमी वस्त्रों से सुशोभित देखकर जिस प्रकार मैं तुम्हारा अभिनन्दन करती हूं, उसी प्रकार जब तुम पुत्रवती होओगी, उस समय भी अभिनन्दन करुंगी; तुम सद्गुणसम्पन्न हो’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर विवाह हो जाने पर पाण्डवों के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने वैदूर्य-मणि-जनित सोने के बहुत-से आभूषण, बहुमूल्य वस्त्र, अनेक देशों के बने हुए कोमल स्पर्श वाले कम्बल, मृगचर्म, सुन्दर रत्न, शय्याएं, आसन,भाँति-भाँति के बड़े-बड़े वाहन तथा वैदूर्य और वज्रमणि (हीरे) से खचित सैकड़ों बर्तन भेंट के तौर पर भेजे। रुप-यौवन और चातुर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा वस्त्राभूषणों से अलंकृत अनेक देशों की सजी-धजी बहुत-सी सुन्दरी सेविकाएं भी समर्पित की। इसके सिवा अमेयात्मा मधुसूदन ने सुशिक्षित और वश में रहने वाले अच्छी जाति के हाथी, गहनों से सजे हुए उत्तम घोड़े, चमकते हुए सोने के पत्रों से सुशोभित और सधे हुए घोड़ों से युक्त बहुत-से सुन्दर रथ, करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं तथा पंक्ति में रखी हुई सुवर्ण की ढेरियां उनके लिये भेजीं। धर्मराज युधिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये वह सारा उपहार ग्रहण कर लिया। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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