महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 268 श्लोक 1-16

अष्‍टषष्‍टयधिकद्विशततम (268) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टषष्ट्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-16 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद– स्यूमरश्मि के द्वारा यज्ञ की अवश्‍यकर्तव्‍यता का निरूपण

युधिष्ठिर ने पूछा– पितामह! प्राणियों का विरोध (अहित) न करते हुए मनुष्‍यों को शम-दमादि छहों गुणों की प्राप्ति कराने वाला जो योग है तथा जो भोग और मोक्ष दोनों फलों को प्राप्‍त कराने वाला धर्म है, वह मुझे बतलाइये। दादा जी! गार्हस्‍थ्‍यधर्म और योग धर्म दोनों एक दूसरे से दूर नहीं हैं, तथापि उन दोनों में से श्रेष्‍ठ कौन है? यह बताने की कृपा करें। भीष्‍म जी ने कहा– राजन! गार्हस्‍थ्‍य और योग धर्म दोनों महान सौभाग्‍य प्रदान करने वाले हैं, दोनों अत्‍यन्‍त दुष्‍कर हैं। दोनों के ही फल महान हैं और दोनों का ही श्रेष्‍ठ पुरुषों ने आचरण किया है। कुन्‍तीनन्‍दन! मैं तुम्‍हें इन दोनों धर्मों की प्रामाणिकता का प्रतिपादन करूँगा और तुम्‍हारे धर्म तथा अर्थविषयक संदेह को मिटा दूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। युधिष्ठिर! इस विषय में जानकार लोग महर्षि कपिल और गौ के भीतर आविष्‍ट हुए स्यूमरश्मि के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो।

हमने सुना है कि पूर्वकाल में राजा नहुष ने वेद के अनुशासन को प्राचीन, सनातन एवं नित्‍य समझकर अपने घर पर आये हुए अतिथि त्‍वष्‍टा के लिये एक गाय का आलम्‍भ करने का विचार किया। उस समय सत्त्वगुण में स्थित, संयमपरायण, मिताहारी, उदारचित और ज्ञानवान कपिल मुनि ने त्‍वष्‍टा के लिये नियुक्‍त हुई गाय को देखा। तब उत्तम, निर्भय, सुस्थिर, सत्‍य, सद्भावयुक्‍त एवं उत्‍साहयुक्‍त बुद्धि को प्राप्‍त हुए महर्षि कपिल ने केवल एक बार इतना ही कहा- 'हा वेद! (जो तुम्‍हारे नाम पर लोग ऐसा अनाचार करते हैं)।' उस समय स्यूमरश्मि नामक एक ऋषि ने उस गाय के भीतर प्रवेश करके कपिलमुनि से कहा- ‘अहो! यदि वेदों की प्रमाणिकता पर आपको संदेह है तो अन्‍य धर्म शास्‍त्रों को किस आधार पर प्रमाणभूत माना जा सकता है? तपस्‍वी, धैर्यवान, वेद एवं विज्ञान रूप दृष्टि वाले ऋषिमुनि वेद को नित्‍यज्ञानसम्‍पन्‍न परमेश्‍वर की नि:श्‍वासभूत वाणी मानते हैं। जो तृष्‍णारहित, उद्वेगशून्‍य, निष्‍काम तथा सब प्रकार के आरम्‍भों से रहित है, उस परमेश्‍वर के नि:श्‍वास से नि:सृत वेदों के विषय में आप विपरीत वचन क्‍यों कह रहे हैं?'

कपिल ने कहा- 'मैं न तो वेदों की निन्‍दा करता हूँ और न कभी उन्‍हें विपरीत बात बताने वाला बताता हूँ। पृथक-पृथक आश्रम वालों के जो कर्म हैं, उन सबके उद्देश्य एक ही हैं- ऐसा हमने सुन रखा है। संन्‍यासी परमपद को प्राप्‍त कर सकता है, वानप्रस्‍थ भी वहीं जा सकता है। गृहस्‍थ और ब्रह्मचारी– ये दोनों भी उसी पद को प्राप्‍त हो सकते हैं। चारों आश्रम ही देवयान नामक चार सनातन मार्ग माने गये हैं। इनमें कौन बड़ा है कौन छोटा; अत: कौन प्रबल है, कौन दुर्बल– यह उनके फलों को निमित्त बनाकर बताया गया है। ऐसा जानकर समस्‍त कार्यों का आरम्‍भ करे, यह वैदिक मत है। अन्‍यत्र यह सिद्धान्‍तभूत श्रुति भी सुनी जाती है कि कर्मों का आरम्‍भ ही न करे। क्‍योंकि यज्ञ आदि कार्यों में आलम्‍भन न करने पर दोष की प्राप्ति नहीं होती है और आलम्‍भन करने पर महान् दोष प्राप्‍त होता है। ऐसी स्थिति में वेद वचनों के बलाबल को जानना अत्‍यन्‍त कठिन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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