पंचाशत्तम (50) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन कुछ दुखी हो बुझती हुई आग के समान दिखायी देने वाले गंगानन्दन भीष्म को सुनाकर इस प्रकार कहाँ-। ’वक्ताओं में श्रेष्ठ भीष्म जी! क्या आपकी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ पहले की ही भाँति प्रसन्न हैं? आपकी बुद्धि व्याकुल तो नहीं हुई है? ’आपको बाणों की चोट सहने का जो कष्ट उठाना पड़ा है उससे आपके शरीर में विशेष पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्योंकि मानसिक दुःख से शारीरिक दुःख अधिक प्रबल होता है-उसे सहना कठिन हो जाता है। ’प्रभो! आपने निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले पिता शान्तनु के वरदान से मृत्यु को अपने अधीन कर लिया है। जब आपकी इच्छा हो तभी मृत्यु हो सकती है अन्यथा नहीं। यह आपके पिता के वरदान का ही प्रभाव हैं, मेरा नहीं। ’राजन्! यदि शरीर मे कोई महीन-से-महीन भी काँटा गड़ जाये तो वह भारी वेदना पैदा करता हैं। फिर जो बाणों के समूह से चुन दिया गया है, उस आपके शरीर की पीड़ा के विषय में तो कहना ही क्या हैं। ’भरतनन्दन! अवश्य ही आपके सामने यह कहना उचित न होगा कि’सभी प्राणियों के जन्म और मरण प्रारब्ध के अनुसार नियत हैं। अतः आपको दैव का विधान समझकर अपने मन में कोई दुःख नहीं मानना चाहिये।’ आपको कोई क्या उपदेश देगा? आप तो देवताओं को भी उपदेश देने में समर्थ हैं। ’पुरुषप्रवर भीष्म! आप ज्ञान में सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धि में भूत, भविष्य और वर्तमान् सब कुछ प्रतिष्ठित है। ’महामते! प्राणियों का संहार कब होता है? धर्म का क्या फल हैं? और उसका उदय कब होता है? ये सारी बातें आपको ज्ञात है; क्योंकि आप धर्म के प्रचुर भण्डार हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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