महाभारत शल्य पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-24

एकोनपन्चाश (49) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: एकोनपन्चाश अध्याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद


इन्द्र तीर्थ, राम तीर्थ, यमुना तीर्थ और आदित्य तीर्थ की महिमा


वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! वहाँ से इन्द्र तीर्थ में जाकर स्नान करके यदुकुलतिलक बलराम जी ने ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन और रत्नों का दान किया। उस तीर्थ में देवेश्वर देवराज इन्द्र ने सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था और बृहस्पति जी को प्रचुर धन दिया था। नाना प्रकार की दक्षिणाओं से युक्त एवं पुष्ट उन सभी शास्त्रोक्त यज्ञों को इन्द्र ने वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों के साथ बिना किसी विघ्न-बाधा के वहाँ पूर्ण कर लिया। भरतश्रेष्ठ! महातेजस्वी इन्द्र ने उन यज्ञों को सौ बार विधिपूर्वक पूर्ण किया, इसलिये इन्द्र शतक्रतु नाम से विख्यात हो गये। उन्हीं के नाम से वह सर्वपापापहारी, कल्याणकारी एवं सनातन पुण्य तीर्थ ‘इन्द्रतीर्थ, कहलाने लगा।

मुसलधारी बलराम जी वहाँ भी विधिपूर्वक स्नान तथा उत्तम भोजन-वस्त्र द्वारा ब्राह्मणों का पूजन करके वहाँ से शुभ तीर्थप्रवर रामतीर्थ में चले गये। जहाँ महातपस्वी भृगुवंशी महाभाग परशुराम जी ने बारंबार क्षत्रिय नरेशों का संहार करके इस पृथ्वी को जीतने के पश्चात मुनिश्रेष्ठ कश्यप को आचार्य रूप से आगे रखकर वाजपेय तथा एक सौ अश्वमेध यज्ञ द्वारा भगवान का पूजन किया और दक्षिणा रूप में समुद्रों सहित यह सारी पृथ्वी दे दी। नाना प्रकार के रत्न, गौ, हाथी, दास, दासी और भेड़ बकरों सहित अनेक प्रकार के दान देकर वे वन में चले गये।

पृथ्वीनाथ! देवताओं और ब्रह्मर्षियों से सेवित उस उत्तम पुण्यमय तीर्थ में मुनियों को प्रणाम करके बलराम जी यमुना तीर्थ में आये, जहाँ अदिति के महाभाग पुत्र गौरकान्ति वरुण जी ने राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था। शत्रुवीरों का संहार करने वाले वरुण ने संग्राम में मनुष्यों और देवताओं को जीत कर उस श्रेष्ठ यज्ञ का आयोजन किया था। राजन! वह श्रेष्ठ यज्ञ समाप्त होने पर देवताओं और दानवों में घोर संग्राम हुआ था, जो तीनों लोकों के लिये भयंकर था। जनमेजय! क्रतुश्रेष्ठ राजसूय का अनुष्ठान पूर्ण हो जाने पर उस देश के क्षत्रियों में महाभयंकर संग्राम हुआ करता है। सबकी इच्छा पूर्ण करने वाले भगवान हलधर ने उस तीर्थ में भी स्नान एवं ऋषियों का पूजन करके अन्य याचकों को भी धन दान किया।

तदनन्तर महर्षियों के मुख से अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न हुए वनमालाधारी कमलनयन बलराम वहाँ से आदित्य तीर्थ में गये। नृपश्रेष्ठ! वहीं यज्ञ करके ज्योतिर्मय भगवान भास्कर ने ज्योतियों का आधिपत्य एवं प्रभुत्व प्राप्त किया था। प्रजानाथ! उसी नदी के तट पर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता, विश्वेदेव, मरुद्रण, गन्धर्व, अप्सराएं, द्वैपायन व्यास, शुकदेव, मधुसूदन श्रीकृष्ण, यक्ष, राक्षस एवं पिशाच- ये तथा और भी बहुत से पुरुष सहस्रों की संख्या में योग सिद्ध हो गये हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले भरतश्रेष्ठ! सरस्वती के उस परम उत्तम कल्याणकारी पुण्यतीर्थ में पहले मधु और कैटभ नामक असुरों का वध करके भगवान विष्णु ने स्नान किया था। भारत! इसी प्रकार धर्मात्मा द्वैपायन व्यास ने भी उसी तीर्थ में गोता लगाया था। इससे उन्होंने परम योग को पाकर उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली। महातपस्वी असित, देवल ऋषि ने उसी तीर्थ में परम योग का आश्रय ले योग सिद्धि पायी थी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सारस्वतोपाख्यान विषयक उनचासवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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