महाभारत आदि पर्व अध्याय 233 श्लोक 1-18

त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततम (233) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


इन्द्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान तथा श्रीकृष्ण, अर्जुन और मयासुर का अग्नि से विदा लेकर एक साथ यमुना तट पर बैठना

मन्दपाल बोले- मैंने अग्निदेव से यह प्रार्थना की थी कि वे तुम लोगों को दाह से मुक्त कर दें। महात्मा अग्नि ने भी वैसा करने की प्रतिज्ञा कर ली थी। अग्नि के दिये हुए वचन को स्मरण करके, तुम्हारी माता की धर्मज्ञता को जानकर और तुम लोगों में भी महान् शक्ति है, इस बात को समझकर ही मैं पहले यहाँ नहीं आया था। बच्चों! तुम्हें मेरे प्रति अपने हृदय में संताप नहीं करना चाहिये। तुम लोग ऋषि हो, यह बात अग्निदेव भी जानते हैं। क्योंकि तुम्हें ब्रह्मतत्त्व का बोध हो चुका है।

वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! इस प्रकार आश्वस्त किये हुए अपने पुत्रों और पत्नी जरिता को साथ ले द्विज मन्दपाल उस देश से दूसरे देश में चले गये। उधर प्रज्वलित हुए प्रचण्ड ज्वालाओं वाले भगवान् हुताशन ने भी जगत् का हित करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन की सहायता से खाण्डववन को जला दिया। वहाँ मज्जा और मेद की कई नहरे बह चलीं और उन सबको पीकर अग्निदेव पूर्ण तृप्त हो गये।

तत्पश्चात् उन्होंने अर्जुन को दर्शन दिया। उसी समय भगवान् इन्द्र मरुद्गणों एवं अन्य देवताओं के साथ आकाश से उतरे और अर्जुन तथा श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले- ‘आप दोनों ने यह ऐसा कार्य किया है, जो देवताओं के लिये भी दुष्कर है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। इस लोक में मनुष्यों के लिये जो दुर्लभ हो ऐसा कोई वर आप दोनो माँग लें।’ तब अर्जुन ने इन्द्र से सब प्रकार के दिव्यास्त्र माँगे। महातेजस्वी इन्द्र ने उन अस्त्रों को देने के लिये समय निश्चित कर दिया।

वे बोले- ‘पाण्डुनन्दन! जब तुम पर भगवान् महादेव प्रसन्न होंगे, तब मैं तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रदान करूँगा। कुरूनन्दन! वह समय कब आने वाला है, इसे भी मैं जानता हूँ। तुम्हारे महान् तप से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें सम्पूर्ण आग्नेय तथा सब प्रकार के वायव्य अस्त्र प्रदान करूँगा। धनंजय! उसी समय तुम मेरे सम्पूर्ण अस्त्रों को ग्रहण करोगे।’ भगवान् श्रीकृष्ण ने भी यह वर माँगा कि अर्जुन के साथ मेरा प्रेम निरन्तर बढ़ता रहे। इन्द्र ने परम बुद्धिमान् श्रीकृष्ण को यह वर दे दिया। इस प्रकार दोनों को वर देकर अग्निदेव की आज्ञा ले देवताओं सहित देवराज भगवान् इन्द्र स्वर्गलोक को चले गये। अग्निदेव भी मृगों और पक्षियों सहित सम्पूर्ण वन को जलाकर पूर्ण तृप्त हो छः दिनों तक विश्राम करते रहे।

जीव-जन्तुओं के मांस खाकर उनके मेद और रक्त पीकर अत्यन्त प्रसन्न हो अग्नि ने श्रीकृष्ण और अर्जुन से कहा- ‘वीरो! आप दोनों पुरुषरत्नों ने मुझे आनन्दपूर्वक तृप्त कर दिया। अब मैं आपको अनुमति देता हूँ, जहाँ आपकी इच्छा हो, जाइये।’ भरतश्रेष्ठ! महात्मा अग्निदेव के इस प्रकार आज्ञा देने पर अर्जुन, श्रीकृष्ण तथा मयासुर सबने उनकी परिक्रमा की। फिर तीनों ही यमुना नदी के रमणीय तट पर जाकर एक साथ बैठे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में व्यासनिर्मित एक लाख श्लोकों की संहिता के अन्तर्गत आदि पर्व के मयदर्शन पर्व में इन्द्रवरदानविषयक दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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