एकाशीतितम (81) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- नृपेश्रेष्ठ! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात उत्तम वर्ण वाली देवयानी फिर उसी वन में विहार के लिये गयी। उस समय उसके साथ एक हजार दासियों सहित शर्मिष्ठा भी साथ में उपस्थित थी। वन के उसी प्रदेश में जाकर वह उन समस्त सखियों के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इच्छानुसार विचरने लगी। वे सभी किशोरियां वहाँ भाँति-भाँति के खेल खेलती हुई आनन्द में मग्न हो गयीं। वे कभी वासन्तिक पुष्पों के मकरन्द का पान करतीं, कभी नाना प्रकार के भोज्य पदार्थों का स्वाद लेतीं और कभी फल खाती थीं। इसी समय नहुषपुत्र राजा ययाति पुन: शिकार खेलने के लिये दैवेच्छा से उसी स्थान पर आ गये। वे परिश्रम करके कारण अधिक थक गये थे और जल पीना चाहते थे। उन्होंने देवयानी, शर्मिष्ठा तथा अन्य युवतियों को भी देखा। वे सभी दिव्य आभूषणों से विभूषित हो पीने योग्य रस का पान और भाँति-भाँति की क्रीड़ाऐं कर रही थीं। राजा ने पवित्र मुस्कान वाली देवयानी को वहाँ समस्त आभूषणों से विभूषित परमसुन्दर दिव्य आसन पर बैठी हुई देखा। उसके रुप की कहीं तुलना नहीं थी। वह सुन्दरी उन स्त्रियों के मध्य बैठी हुई थी और शर्मिष्ठा द्वारा उसकी चरण सेवा की जा रही थी। ययाति ने पूछा- दो हजार[1] कुमारी सखियों से घिरी हुई कन्याओं! मैं आप दोनों के गोत्र और नाम पूछ रहा हूँ। शुभे! आप दोनों अपना परिचय दें। देवयानी बोली- महाराज! मैं स्वयं परिचय देती हूं, आप मेरी बात सुनें। असुरों के जो सुप्रसिद्ध गुरु शुक्राचार्य हैं, मुझे उन्हीं की पुत्री जानिये। यह दानवराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा मेरी सखी और दासी है। मैं विवाह होने पर जहाँ जाऊंगी, वहाँ यह भी जायगी। ययाति बोले- सुन्दरी! यह असुरराज की रुपवती कन्या सुन्दर भौहों वाली शर्मिष्ठा आपकी सखी और दासी किस प्रकार हुई? यह बताइये। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। देवयानी बोली- नरश्रेष्ठ! सब लोग दैव के विधान का ही अनुसरण करते हैं। इसे भी भाग्य का विधान मानकर संतोष कीजिये। इस विषय की विचित्र घटनाओं को न पूछिये। आपके रुप और वेष राजा के समान हैं और आप ब्राह्मी वाणी (विशुद्ध संस्कृत भाषा) बोल रहे हैं। मुझे बताइये; आपका क्या नाम है, कहाँ से आये हैं और किसके पुत्र हैं? ययाति ने कहा- मैंने ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक सम्पूर्ण वेद का अध्ययन किया है। मैं राजा नहुष का पुत्र हूँ और इस समय स्वयं राजा हूँ। मेरा नाम ययाति है। देवयानी ने पूछा- महाराज! आप किस कार्य से वन के इस प्रदेश में आये हैं? आप जल अथवा कमल लेना चाहते हैं या शिकार की इच्छा से ही आये हैं? ययाति ने कहा- भद्रे! मैं एक हिंसक पशु के मारने के लिये उसका पीछा कर रहा था, इससे बहुत थक गया हूँ और पानी पीने के लिये यहाँ आया हूँ। अत: अब मुझे आज्ञा दीजिये। देवयानी ने कहा- राजन्! आपका कल्याण हो। मैं दो हजार कन्याओं तथा अपनी सेविका शर्मिष्ठा के साथ आपके अधीन होती हूँ। आप मेरे सखा और पति हो जायं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ किन्हीं श्लोकों में दो हजार और किन्हीं में एक हजार सखियों का वर्णन आता है। यथावसर दोनों ठीक हैं।
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