महाभारत विराट पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-12

द्विषष्टितम (62) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: द्विषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कौरव सेना के सब महारथी मिलकर एक साथ संगठित होकर बड़ी सावधानी के साथ अर्जुन का सामना करने लगे। परंतु असीम आत्मबल से सम्पन्न कुन्ती पुत्र ने सब ओर सायकों का जाल सा बिछाकर कुहरे से ढके हुए पहाड़ों की तरह उन सब महारथियों को आच्छादित कर दिया। बड़े-बड़े गजराजों के चिग्घाड़ने, घोड़ों के हिनहिनाने और नगाड़ों तथा शंखों के बजाये जाने से जो शब्द हुए, उनके एकत्र मिलने से उस रण भूमि में भारी कोलाहल मच गया। पार्थ के सहस्रों बाण समुदाय मनुष्यों और घोड़ों के शरीरों को छेदकर और उनके लोहे के बने हुए कवचों को भी छिन्न भिन्न करके नीचे गिरा रहे थे। जैसे शरद् ऋतु के ( निर्मल आकाश में ) दोपहर का सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणें फैलाकर प्रकाशित होता है, उसी प्रकार संग्राम में पाण्डु नन्दन अर्जुन शत्रु सेना पर उतावली के साथ बाण वर्षा करते हुए सुशोभित होते थे। उस समय अत्यन्त भयभीत होकर रथी सैनिक रथों से कूदकर और घुड़सवार घोड़ों की पीठ से उछलकर जान लेकर भाग चले और पैदल योद्धा तो भूमि पर थे ही; उनहोंने भी ( डर के मारे ) इधर उधर की राह ली। महामना शूरवीर ताँबे और लोहे के बने हुए कवच जब बाणों से कटते थे, तब उनका बड़ा भारी शब्द होता था।

कुछ ही देर में युद्ध का सारा मैदान मूर्च्छित हुए सैनिकों के शरीरों से पट गया। तीखे बाणों की मार से जिनके प्राण निकल गये, उन हाथी सवारों, घुड़सवारों तथा रथ की बैठे से गिरे हुए मनुष्यों की लाशों से वहाँ की भूमि आच्छादित हो गयी थी। उस समय ऐसा जान पड़ता था, जैसे धनुष हाथ में लिये अर्जुन युद्ध भूमि में सब ओर नाचते फिर रहे हों। गाण्डीव की टंकार वज्र की गड़गड़ाहट को भी मात कर रही थी। उसे सुनकर समस्त सैनिक भयभीत हो उस महान संग्राम से भाग निकले। युद्ध के मुहाने पर कुण्डल और पगड़ी धारण किये असंख्य कटे हुए सिर पड़े दिखायी देते थे। कितने ही सोने के हार इधर उधर गिरे थे। अर्जुन के बाणों से मथित हुई लाशों से वहाँ की जमीन पट गयी थी। कितनी ही भुजाएँ कटकर गिरी थीं; जो अब भी ( मुट्ठी में दृढ़ता पूर्वक ) धनुष पकड़े हुए थीं। उन हाथों में बाजू बन्द, कड़े, अंगूठी आदि आभूषण सभी ज्यों के त्यों थे। इन सबसे आच्छादित होकर उस रण भूमि की विचित्र शोभा हा रही थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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