महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 104 श्लोक 1-17

चतुरधिकशततम (104) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
नारद जी का नागराज आर्यक के सम्मुख सुमुख के साथ मातलि की कन्या के विवाह का प्रस्ताव एवं मातलि का नारद जी, सुमुख एवं आर्यक के साथ इन्द्र के पास आकर उनके द्वारा सुमुख को दीर्घायु प्रदान करना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह
  • कण्व मुनि कहते हैं- कुरुनन्दन! मातलि की बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद ने नागराज आर्यक से कहा। (1)
  • नारद जी बोले- नागराज! ये इन्द्र के प्रिय सखा और सारथी मातलि हैं। इनमें पवित्रता, सुशीलता और समस्त सद्गुण भरे हुए हैं। ये तेजस्वी होने के साथ ही बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं। (2)
  • इन्द्र के मित्र, मंत्री और सारथी सब कुछ यही हैं। प्रत्येक युद्ध में ये इंद्र के साथ रहते हैं। इनका प्रभाव इन्द्र से कुछ ही कम है। (3)
  • ये देवासुर संग्राम में सहस्र घोड़ों से जुते हुए देवराज के विजयशील श्रेष्ठ रथ का अपने मानसिक संकल्प से ही संचालन और नियंत्रण करते हैं। (4)
  • ये अपने अश्वों द्वारा जिन शत्रुओं को जीत लेते हैं, उन्हीं को देवराज इन्द्र अपने बाहुबल से पराजित करते हैं। पहले इनके द्वारा प्रहार हो जाने पर ही बलनाशक इन्द्र शत्रुओं पर प्रहार करते हैं। (4)
  • इनके एक सुंदरी कन्या है, जिसके रूप की समानता भूमंडल में कहीं नहीं है। उसका नाम है गुणकेशी। वह सत्य, शील और सद्गुणों से सम्पन्न है। (5)
  • देवोपम कांती वाले नागराज! ये मातलि बड़े प्रयत्न से कन्या के लिए वर ढूँढने के निमित्त तीनों लोकों में विचरते हुए यहाँ आए हैं। आपका पौत्र सुमुख इन्हें अपनी कन्या का पति होने योग्य प्रतीत हुआ है; उसी को इन्होंने पसंद किया है। (6)
  • नागप्रवर आर्यक! यदि आपको भी यह संबंध भली-भाँति रुचिकर जान पड़े तो शीघ्र ही इनकी पुत्री को ब्याह लाने का निश्चय कीजिये। (7)
  • जैसे भगवान विष्णु के घर में लक्ष्मी और अग्नि के घर में स्वाहा शोभा पाती हैं, उसी प्रकार सुंदरी गुणकेशी तुम्हारे कुल में प्रतिष्ठित हो। (8)
  • अत: आप अपने पौत्र के लिए गुणकेशी को स्वीकार करें। जैसे इन्द्र के अनुरूप शची है, उसी प्रकार आपके सुयोग्य पौत्र के योग्य गुणकेशी है। (9)
  • आपके और एरावत के प्रति हमारे हृदय में विशेष सम्मान है और यह सुमुख भी शील, शौच और इंद्रियसंयम आदि गुणों से सम्पन्न है, इसलिए इसके पितृहीन होने पर भी हम गुणों के कारण इसका वरण करते हैं। (10)
  • ये मातलि स्वयं चलकर कन्यादान करने को उद्यत है। आपको भी इनका सम्मान करना चाहिए। (11)
  • कण्व मुनि कहते हैं- कुरुनंदन! तब नागराज आर्यक प्रसन्न होकर दीनभाव से बोले- (12)
  • आर्यक पुन: बोले- 'देवर्षे! मेरा पुत्र मारा गया और पौत्र का भी उसी प्रकार मृत्यु ने वरण किया है; अत: मैं गुणकेशी को बहू बनाने की इच्छा कैसे करूँ? (13)
  • महर्षे! मेरी दृष्टि में आपके इस वचन का कम आदर नहीं है और ये मातलि तो इन्द्र के साथ रहने वाले उनके सखा हैं, अत: ये किसको प्रिय नहीं लगेंगे? (14)
  • परंतु माननीय महामुने! कारण की दुर्बलता से मैं चिंता में पड़ा रहता हूँ। महाद्युते! इस बालक का पिता, जो मेरा पुत्र था, गरुड़ का भोजन बन गया। इस दुःख से हम लोग पीड़ित हैं। प्रभों! जब गरुड़ यहाँ से जाने लगे, तब पुन: यह कहते गए कि दूसरे महीने में मैं सुमुख को भी खा जाऊँगा। अवश्य ही ऐसा ही होगा, क्योंकि हम गरुड़ के निश्चय को जानते हैं। गरुड़ के उस कथन से मेरी हँसी-खुशी नष्ट हो गयी है। (15-17)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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