महाभारत वन पर्व अध्याय 249 श्लोक 1-19

एकोनपच्‍चाशदधिकद्विशततम (249) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनपच्‍चाशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन का कर्ण से अपनी ग्‍लानि का वर्णन करते हुए आमरण अनशन का निश्‍चय, दु:शासन को राजा बनने का आदेश, दु:शासन का दु:ख ओर कर्ण का दुर्योधन को समझाना

दुर्योधन बोला- कर्ण! चित्रसेन से मिलकर उस समय शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने हंसते हुए-से यह शूरोचित वचन कहा- ‘वीर गन्‍धर्वश्रेष्‍ठ! तुम्‍हें मेरे इन भाइयों को मुक्‍त कर देना चाहिये। पाण्‍डवों के जीते-जी ये इस प्रकार अपमान सहन करने योग्‍य नहीं हैं’। कर्ण! महात्‍मा पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के ऐसा कहने पर गन्‍धर्व ने वह बात कह दी, जिसके लिये सलाह करके हम लोग घर से चले थे। उसने बताया कि ‘ये कौरव सुख से वंचित हुए पाण्‍डवों तथा द्रौपदी की दुर्दशा देखने के लिये आये हैं’। जिस समय गन्‍धर्व उपर्युक्‍त बात कह रहा था, उस समय मैं (अत्‍यन्‍त) लज्जित हो गया। मेरी इच्‍छा हुई कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊं।

तत्‍पशचात् गन्‍धर्वों ने पाण्‍डवों के साथ युधिष्ठिर के पास आकर हम लोगों की दुर्मन्‍त्रणा उन्‍हें बतायी और हमें उनके सुपुर्द कर दिया उस समय हम सब लोग बंधे हुए थे। स्त्रियों के सामने मैं दीनभाव से बंधकर शत्रुओं के वश में पड़ गया और उसी दशा में युधिष्ठिर को अर्पित किया गया। इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्‍या हो सकती है? जिनका मैंने सदा तिरस्‍कार किया और जिनका मैं सर्वदा शत्रु बना रहा, उन्‍हीं लोगों ने मुझ दुर्बुद्धि को शत्रुओं के बन्‍धन से छुड़ाया है और उन्‍होंने ही मुझे जीवनदान दिया है। वीर! यदि मैं उस महायुद्ध में मारा गया होता, तो यह मेरे लिये कल्‍याणकारी होता; परंतु इस दशा में जीवित रहना कदापि अच्‍छा नहीं है। गन्‍धर्व के हाथ से मारे जाने पर इस भूमण्‍डल में मेरा यश विख्‍यात हो जाता और इन्‍द्रलोक में मुझे अक्षय पुण्‍यधाम प्राप्‍त होते।

नरश्रेष्‍ठ वीरो! अब मैंने जो निश्‍चय किया है, उसे सुनो। मैं यहाँ आमरण अनशन करूँगा। तुम सब लोग घर लौट जाओ। मेरे सब भाई आज अपनी राजधानी को चले जायें। कर्ण आदि मेरे मित्र तथा बान्‍धवगण भी दु:शासन को आगे करके आज ही हस्तिनापुर को लौट जायें। शत्रुओं से अपमानित होकर अब मैं अपने नगर को नहीं जाऊंगा। अब तक मैंने शत्रुओं का मानमर्दन किया है और सुहृदों को सम्‍मान दिया है। परंतु आज मैं अपने सुहृदों के लिये शोकदायक और शत्रुओं का हर्ष बढ़ाने वाला हो गया। हस्तिनापुर जाकर मैं राजा से क्‍या कहूँगा? भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्‍थामा, विदुर, संजय, बाह्लीक, भूरिश्रवा तथा अन्‍य जो वृद्ध पुरुषों के लिये आदरणीय महानुभाव हैं, वे तथा ब्राह्मण, प्रमुख वैश्‍यगण और उदासीन वृत्ति वाले लोग मुझसे क्‍या कहेंगे और मैं उन्‍हें क्‍या उत्‍तर दूंगा? मैं पराक्रम करके शत्रुओं के मस्‍तक तथा छाती पर खड़ा हो गया था; परंतु अब अपने ही दोष से नीचे गिर गया। ऐसी दशा में उन आदरणीय पुरुषों से मैं किस प्रकार वार्तालाप करूँगा? उद्दण्‍ड मनुष्‍य लक्ष्‍मी, विद्या तथा ऐश्‍वर्य को पाकर भी दीर्घकाल तक कल्‍याणमय पद पर प्रतिष्ठित नहीं रह पाते हैं। जैसे मैं मद और अंहकार में चूर होकर अपनी प्रतिष्‍ठा खो बैठा हूँ। अहो! यह कुकर्म मेरे योग्‍य नहीं था। मुझ दुर्बुद्धि ने स्‍वयं ही मोहवश दु:खदायक दुष्‍कर्म कर डाला; जिससे (गन्‍धर्वों का बंदी हो जाने के कारण) मेरा जीवन संदिग्‍ध हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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