चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब कुरुराज दुर्योधन और बलवानों श्रेष्ठ भीमसेन रंगभूमि में उतरकर गदा युद्ध कर रहे थे, उस समय दर्शक जनता उनके प्रति पक्षपातपूर्ण स्नेह करने के कारण मानो दो दलों में बंट गयी थी। कुछ कहते, ‘अहो! वीर कुरुराज कैसा अद्भुत पराक्रम दिखा रहे हैं।’ दूसरे बोल उठते, ‘वाह! भीमसेन तो गजब का हाथ मारते हैं।’ इस तरह की बातें करने वाले लोगों की भारी आवाजें वहाँ सहसा सब ओर गूंजने लगीं। फिर तो सारी रंगभूमि में क्षुब्ध महासागर के समान हल-चल मच गयी। यह देख बुद्धिमान् द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय पुत्र अश्वत्थामा से कहा। द्रोण बोले- वत्स! ये दोनों महापराक्रमी वीर अस्त्र-विद्या में अत्यन्त अभ्यस्त हैं। तुम इन दोनों को युद्ध से रोको, जिससे भीमसेन और दुर्योधन को लेकर रंगभूमि में सब ओर क्रोध न फैल जाय। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अश्वत्थामा ने बड़े वेग से उठकर भीमसेन और दुर्योधन को रोकते हुए कहा- ‘भीम! तुम्हारे गुरु की आज्ञा है, गान्धारीनन्दन! तुम्हारे आचार्य का आदेश है, तुम दोनों का युद्ध बंद होना चाहिये। तुम दानों ही योग्य हो, तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति वेगपूर्वक आक्रमण अवांछनीय है। तुम दोनों का यह दु:साहस अनुचित है। अत: इसे बंद करो।’ इस प्रकार कहकर प्रलयकालीन वायु से विक्षुप्त उत्ताल तरंगों वाले दो समुद्रों की भाँति गदा उठाये हुए दुर्योधन और भीमसेन को गुरु पुत्र अश्वत्थामा ने युद्ध से रोक दिया। तत्पश्चात् द्रोणाचार्य ने महान् मेघों के समान कोलाहल करने वाले बाजों को बंद करवाकर रंगभूमि में उपस्थित हो यह बात कही- ‘दर्शकगण! जो मुझे पुत्र से भी अधिक प्रिय है, जिसने सम्पूर्ण शस्त्रों में निपुणता प्राप्त की है तथा जो भगवान् नारायण के समान पराक्रमी है, उस इन्द्रकुमार कुन्तीपुत्र अर्जुन का कौशल आप लोग देखें’। तदनन्तर आचार्य के कहने से स्वस्तिवाचन कराकर तरुणवीर अर्जुन गोह के चमड़े के बने हुए हाथ के दस्ताने पहने, बाणों से भरा तरकस लिये धनुष सहित रंगभूमि में दिखायी दिये। वे श्याम शरीर पर सोने का कवच धारण किये ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो सूर्य, इन्द्रधनुष, विद्युत और संध्याकाल से युक्त मेघ शोभा पाता हो। फिर तो समूचे रंगमण्डप में हर्षोल्लास छा गया। सब ओर भाँति-भाँति के बाजे और शंख बजने लगे। 'ये कुन्ती के तेजस्वी पुत्र हैं। ये ही पाण्डु के मझले बेटे हैं। ये देवराज इन्द्र की संतान हैं। ये ही कुरुवंश के रक्षक हैं। अस्त्र-विद्या के विद्वानों में ये सबसे उत्तम हैं। ये धर्मात्मओं और शीलवानों में श्रेष्ठ हैं। शील और ज्ञान की तो ये सर्वोत्तम निधि हैं।' उस समय दर्शकों से मुख से तुमुल ध्वनि के साथ निकली हुई ये बातें सुनकर कुन्ती के स्तनों से दूध और नेत्रों से स्नेह के आंसू बहने लगे। उन दुग्ध मिश्रित आंसुओं से कुन्तीदेवी का वक्ष:स्थल भीग गया। वह महान् कोलाहल धृतराष्ट्र के कानों में भी गूंज उठा तब नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र प्रसन्नचित्त होकर विदुर से पूछने लगे- ‘विदुर! विक्षुब्ध महासागर के समान यह कैसा महान् कोलाहल हो रहा है? यह शब्द मानो आकाश को विदीर्ण करता हुआ रंगभूमि में सहसा व्यक्त हो उठा है’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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