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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद
- जनमेजय ने पूछा- भगवान! भरतवंशियों के पितामह गंगानन्दन महात्मा भीष्म सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे। समस्त राजाओं में ध्वज के समान उनका बहुत ऊँचा स्थान था। वे बुद्धि में बृहस्पिति, क्षमा में पृथ्वी, गम्भीरता में समुद्र, स्थिरता में हिमवान उदारता में प्रजापति और तेजी में भगवान सूर्य के समान थे। वे अपने बाणों की वर्षा द्वारा देवराज इंद्र के समान शत्रुओं का विध्वंस करने वाले थे। उस समय जो अत्यन्त भंयकर तथा रोमांचकारी रणयज्ञ आरम्भ हुआ था, उसमें उन्होंने जब दीर्घकाल के लिये दीक्षा ले ली, तब इस महाबाहु युधिष्ठिर ने क्या कहा? भीमसेन तथा अर्जुन ने भी उसके बारे में क्या कहा? अथवा भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मत किस प्रकार व्यक्त किया? (1-5)
- वैशम्पायनजी ने कहा- राजन! आप धर्म के विषय में कुशल, वक्ताओं में श्रेष्ठ, परम बुद्धिमान युधिष्ठिर ने उस समय सम्पूर्ण भाइयों तथा सनातन भगवान वासुदेव को बुलाकर सान्त्वनापूर्वक इस प्रकार कहा (6)
- तुम सब लोग सब ओर घूम-फिरकर अपनी सेनाओं का निरीक्षण करो और कवच आदि से सुसज्जित होकर खड़े हो जाओ। सबसे पहले पितामह भीष्म से तुम्हारा युद्ध होगा। इसलिये अपनी सात अक्षौहिणी सेनाओं के सेनापतियों की देखभाल कर लो। (7-8)
- भगवान श्रीकृष्ण बोले- भरतकुलभूषण! ऐसा अवसर उपस्थित होने पर आपको जैसी बात कहनी चाहिये, वैसी ही यह अर्थयुक्त बात आपने कही है। (9)
- महाबाहो! मुझे आपकी बात ठीक लगती है; अत: इस समय जो आवश्यक कर्तव्य है, उसका पालन कीजिये। अपनी सेना के सात सेनापतियों को निश्चित कर लीजिये। (10)
- वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर राजा द्रुपद, विराट, सात्यकि, पाञ्चालवीर शिखण्डी और मगधराज सहदेव- इन सात युद्धाभिलाषी महाभाग वीरों को युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सेनापति के पद पर अभिषिक्त कर दिया और धृष्टद्युम्न को सम्पूर्ण सेनाओं का प्रधान सेनापति बना दिया, जो द्रोणाचार्य का अन्त करने के लिये प्रज्वलित अग्नि से उत्पन्न हुए थे। (11-13)
- तदनन्तर उन्होंने निद्राविजयी वीर धनंजय को उन समस्त महामना वीर सेनापतियों का भी अधिपति बना दिया। (14)
- अर्जुन के भी नेता और उनके घोड़ों के भी नियन्ता हुए बलरामजी के छोटे भाई परम बुद्धिमान श्रीमान भगवान श्रीकृष्ण (15)
- राजन! तदनन्तर उस महान संहारकारी युद्ध को अत्यन्त सनिकट और प्राय: उपस्थित हुआ देख नीले रंग का रेशमी वस्त्र पहने कैलाश शिखर के समान गौरवर्ण वाले हलधारी महाबाहु श्रीमान बलरामजी ने पाण्डवों के शिविर में सिंह के समान लीलापूर्वक गति से प्रवेश किया। उनके नेत्रों के कोने मद से अरुण हो रहे थे। उनके साथ अक्रूर आदि यदुवंशी तथा गद, साम्ब, उद्भव, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण तथा आहुकपुत्र आदि प्रमुख वृष्णिवंशी भी जो सिंह और व्याघ्रों के समान अत्यन्त उत्कट बलशाली थे, उन सबसे सुरक्षित बलरामजी वैसे ही सुशोभित हुए, मानो मरुद्रणों के साथ महेन्द्र शोभा पा रहे हों (16-19)
- उन्हें देखते ही धर्मराज युधिष्ठिर, महातेजस्वी श्रीकृष्ण, भयंकर कर्म करने वाले कुन्ती पुत्र भीमसेन तथा अन्य जो कोई भी राजा वहाँ विद्यमान थे, वे सब-के-सब उठकर खड़े हो गये। (20-21)
- हलायुध बलरामजी को आया देख सबने उनका समादर किया। तदनन्तर पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने अपने हाथ से उनके हाथ का स्पर्श किया। (22)
- श्रीकृष्ण आदि सब लोगों ने उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात बूढ़े राजा विराट और द्रुपद को प्रणाम करके शत्रुदमन बलराम युधिष्ठिर के साथ बैठे। (23)
- फिर उन सब राजाओं के चारों ओर बैठ जाने पर रोहिणी नन्दन बलराम ने भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए कहा- (24)
- जान पड़ता है यह महाभयंकर और दारुण नरसंहार होगा ही। प्रारम्भ के इस विधान को मैं अटल मानता हूँ। अब इसे हटाया नहीं जा सकता। (25)
- ‘इस युद्ध से पार हुए आप सब सुहृदों को मैं अक्षत शरीर से युक्त और नीरोग देखूँगा। ऐसा मेरा विश्वास है। (26)
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