महाभारत आदि पर्व अध्याय 139 श्लोक 1-12

एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम (139) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्‍डु के वीर पुत्रों के महान् तेजस्‍वी और बल में बढ़े-चढ़े सुनकर महाराज धृतराष्ट्र व्‍याकुल हो बड़ी चिन्‍ता में पड़ गये। तब उन्‍होंने राजनीति और अर्थ-शास्त्र के पण्डित तथा उत्तम मन्‍त्र के ज्ञाता मन्त्रिप्रवर कणिक को बुलाकर इस प्रकार कहा। धृतराष्ट्र बोले- द्विजश्रेष्ठ! पाण्‍डवों की दिनों दिन उन्‍नति और सर्वत्र ख्‍याति हो रही है। इस कारण मैं उनसे डाह रखने लगा हूँ। कणिक! तुम भली-भाँति निश्चय करके बतलाओ, मुझे उनके साथ संधि करनी चाहिये या विग्रह? मैं तुम्‍हारी बात मानूंगा।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन्! राजा धृतराष्ट्र के इस प्रकार पूछने पर विप्रवर कणिक मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए तथा राजनीति के सिद्वान्‍त का परिचय देने वाली तीखी बात कहने लगे। ‘निष्‍पापनरेश! इस विषय में मेरी कही हुई ये बातें सुनिये। कुरुवंशशिरोमणे! इसे सुनकर आप मेरे प्रति दोष दृष्टि न कीजियेगा। राजा को सर्वदा दण्‍ड के लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपना छिद्र-अपनी दुर्बलता प्रकट न होने दे; परंतु दूसरों के छिद्र या दुर्बलता पर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओं की निर्बलता का पता चल जाय तो उन पर आक्रमण कर दे। जो सदा दण्‍ड देने के लिये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं; इसलिये सब कार्य दण्‍ड के द्वारा ही सिद्ध करे। राजा को इतनी सावधानी रखनी चाहिये, जिससे शत्रु उसकी कमज़ोरी न देख सके और यदि शत्रु की कमज़ोरी प्रकट हो जाय तो उस पर अवश्‍य चढ़ाई करे। जैसे कछुआ अपने अंगों की रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा अपने सब अंगों (राजा, अमात्‍य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, बल और सुहृत) की रक्षा करे और अपनी कमज़ोरी को छिपाये रखे।

यदि कोई कार्य शुरू कर दे तो उसे पूरा किये बिना कभी न छोड़े; क्‍योंकि शरीर में गड़ा हुआ कांटा यदि आधा टूटकर भीतर रह जाय तो वह बहुत दिनों तक मवाद देता रहता है। अपना अनिष्ट करने वाले शत्रुओं का वध कर दिया जाय, इसी की नीतिज्ञ पुरुष प्रशंसा करते हैं। अत्‍यन्‍त पराक्रमी शत्रु को भी आपत्ति में पड़ा देख उसे सुगमतापूर्वक नष्ट कर दे। इसी प्रकार जो अच्‍छी तरह युद्ध करने वाला शत्रु है, उसे भी आपत्तिकाल में अनायास ही मार भगाये। आपत्ति के समय शत्रु का संहार अवश्‍य करे। उस समय उसके सम्‍बन्‍ध या सौहार्द आदि का विचार कदापि ने करे। तात! शत्रु दुर्बल हो, तो किसी प्रकार उसकी उपेक्षा न करे। क्‍योंकि जैसे थोड़ी-सी भी आग ईंधन का सहारा मिल जाने पर समूचे वन को जला देती है, उसी प्रकार छोटा शत्रु भी दुर्ग आदि प्रबल आश्रय का सहारा लेकर विनाशकारी बन जाता है। अंधा बनने का अवसर आने पर अंधा बन जाय- अर्थात अपनी असर्मथता के समय शत्रु के दोषों को न देखे। उस समय सब ओर से धिक्‍कार और निन्‍दा मिलने पर भी उसे अनसुनी कर दे, अर्थात् उसकी ओर से कान बंद करके बहरा बन जाय।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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