|
महाभारत: उद्योगपर्व: एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
- जनमेजय ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! जब इस प्रकार कुरुक्षेत्र में सेनाएं मोर्चा बांधकर खड़ी हो गयी, तब काल प्रेरित कौरवों ने क्या किया? (1)
- वैशम्पायनजी ने कहा- भरतकुलभूषण महाराज! जब वे सभी सेनाएँ कुरुक्षेत्र में व्यूहरचनापूर्वक डट गयीं, तब धृतराष्ट्र ने संजय से कहा- (2)
- संजय! यहाँ आओ ओर कौरवों तथा पाण्डवों की सेना के पड़ाव पड़ जाने पर वहाँ जो कुछ हुआ हो, वह सब मुझे पूर्णरूप से बताओ। (3)
- मैं तो समझता हूँ देव ही प्रबल है। उसके सामने पुरुषार्थ व्यर्थ है; क्योंकि मैं युद्ध के दोषों को अच्छी तरह जानता हूँ। वे दोष भयंकर संहार उपस्थित करने वाले हैं, इस बात को भी समझता हूँ, तथापि ठग-विद्या के पण्डित तथा कपट बात को भी समझता हूं, द्यूत करने वाले अपने पुत्र को न तो रोक सकता हूँ और न अपना हित-साधन ही कर सकता हूँ। (4-5)
- सूत! मेरी बुद्धि उपर्युक्त दोषों को बारंबार देखती और समझती है तो भी दुर्योधन से मिलने पर पुन: बदल जाती है। (6)
- संजय! ऐसी दशा में अब जो कुछ होने वाला है, वह होकर ही रहेगा। कहते हैं, युद्ध में शरीर का त्याग करना निश्चय ही सबके द्वारा सम्मानित क्षत्रिय धर्म है। (7)
- संजय ने कहा- महाराज! आपने जो कुछ पूछा है और आप जैसा चाहते हैं, वह सब आपके योग्य है; परंतु आपको युद्ध का दोष दुर्योधन के माथे पर नहीं मढ़ना चाहिये। (8)
- भूपाल! मैं सारी बातें बता रहा हूं, आप सुनिये। जो मनुष्य अपने बुरे आचरण से अशुभ फल पाता है, वह काल अथवा देवताओं पर दोषारोपण करने का अधिकारी नहीं है। (9)
- महाराज! जो पुरुष दूसरे मनुष्यों के साथ सर्वथा निन्दनीय व्यवहार करता है, वह निन्दित आचरण करने वाला पापात्मा सब लोगों के लिये वध्य है। (10)
- नरश्रेष्ठ! जूए के समय जो बार-बार छल-कपट और अपमान के शिकार हुए थे, अपने मन्त्रियों सहित उन पाण्डवों ने केवल आपका ही मुँह देखकर सब तरह के तिरस्कार सहन किये हैं। (11)
- इस समय युद्ध के कारण घोड़ों, हाथियों तथा अमित तेजस्वी राजाओं को जो विनाश प्राप्त हुआ है, उसका सम्पूर्ण वृतान्त आप मुझसे सुनिये। (12)
- महामते! इस महायुद्ध में सम्पूर्ण लोकों के विनाश को सूचित करने वाला जो वृतान्त जैसे-जैसे घटित हुआ है, वह सब स्थिर होकर सुनिये और सुनकर एकचित्त बने रहिये, व्याकुल न होइये। (13)
- क्योंकि मनुष्य पुण्य और पाप के फल भोग की प्रक्रिया में स्वतन्त्र कर्ता नहीं है ; क्योंकि मनुष्य प्रारम्भ के अधीन है, उसे तो कठपुतली की भांति उस कार्य में प्रवृत्त होना पड़ता है। (14)
- कोई ईश्वर की प्रेरणा से कार्य करते हैं, कुछ लोग आकस्मिक संयोगवश कर्मों में प्रवृत्त होते हैं तथा दूसरे बहुत से लोग अपने पूर्ण कर्मों की प्रेरणा से कार्य करते हैं। इस प्रकार ये कार्य की विविध अवस्थाएं देखी जाती हैं, इसलिये इस महान संकट में पड़कर आप स्थिर भाव से[1]सारा वृत्तान्त सुनिये। (15)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सैन्यनिर्वाणपर्वमें संजयवाक्यविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
|