महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-16

पंचाशत्तम (50) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व:पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


सत्त्व और पुरुष की भिन्नता, बुद्धिमान की प्रंशसा, पंच्चभूतों के गुणों का विस्तार और परमात्मा की श्रेष्ठता का वर्णन

ब्रह्मा जी बोले- श्रेष्ठ महर्षियों! तुम लोगों ने जो विषय पूछा है, उसे अब मैं कहूँगा। गुरु ने सुयोग्य शिष्य को पाकर जो उपदेश दिया है, उसे तुम लोग सुनो। उस विषय को यहाँ पूर्णतया सुनकर अच्छी प्रकार धारण करो। सब प्राणियों की अहिंसा ही सर्वोत्तम कर्तव्य है- ऐसा माना गया है। यह साधन उद्वेग रहित, सर्वश्रेष्ठ और धर्म को लक्षित कराने वाला है। निश्चय को साक्षात करने वाले लोग कहते हैं कि ‘ज्ञान ही परम कल्याण का साधन है।’ इसलिये परम शुद्ध ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। जो लोग प्राणियों की हिंसा करते हैं, नास्तिक वृत्ति का आश्रय लेते हैं और लोभ तथा मोह में फँसे हुए हैं, उन्हें नरक में गिरना पड़ता है। जो लोग सावधान होकर सकाम कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे बार-बार इस लोक में जन्म ग्रहण करके सुखी होते हैं। जो विद्वान समत्वयोग में स्थित हो श्रद्धा के साथ कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान करते हैं और उनके फल में आसक्त नहीं होते, वे धीर और उत्तम दृष्टि वाले माने गये हैं।

श्रेष्ठ महर्षियो! अब मैं यह बता रहा हूँ कि सत्त्व और क्षेत्रज्ञ का परस्पर संयोग और वियोग कैसे होता है? इस विषय को ध्यान देकर सुनो। इन दोनों में यहाँ यह विषय विषयिभाव सम्बन्ध माना गया है। इनमें पुरुष तो सदा विषयी और सत्त्व विषय माना जाता है। पूर्व अध्याय में मच्छर और गूलर के उदाहरण से यह बात बतायी जा चुकी है कि भोगा जाने वाला अचेतन सत्त्व नित्य स्वरूप क्षेत्रज्ञ को नहीं जानता, किंतु जो क्षेत्रज्ञ है वह इस प्रकार जानता है कि जो भोगता है वह आत्मा है और जो भोगा जाता है, वह सत्त्व है।

मनीषी पुरुष सत्त्व को द्वन्द्वयुक्त कहते हैं और क्षेत्रज्ञ निर्द्वन्द्व, निष्फल, नित्य और निर्गुण स्वरूप है। वह क्षेत्रज्ञ समभाव से सर्वत्र भली-भाँति स्थित हुआ ज्ञान का अनुसरण करता है। जैसे कमल का पत्ता निर्लिप्त रहकर जल को धारण करता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ सदा सत्त्व का उपभोग करता है। जैसे कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की चंचल बूँद उसे भिगो नहीं पाती, उसी प्रकार विद्वान पुरुष समस्त गुणों से सम्बन्ध रखते हुए भी किसी से लिप्त नहीं होता। अत: क्षेत्रज्ञ पुरुष वास्विक में असंग है, इसमें संदेह नहीं है। यह निश्चित बात है कि पुरुष के भोगने योग्य द्रव्यमात्र की संज्ञा सत्त्व है तथा जैसे द्रव्य और कर्ता का सम्बन्ध है, वैसे ही इन दोनों का सम्बन्ध है। जैसे कोई मनुष्य दीपक लेकर अन्धकार में चलता है, वैसे ही परम तत्त्व को चाहने वाले साधक सत्त्व रूप दीपक के प्रकाश में साधन मार्ग पर चलते हैं। जब तक दीपक में द्रव्य और गुण रहते हैं, तभी तक वह प्रकाश फैलाता है। द्रव्य और गुण का क्षय हो जाने पर ज्योति भी अन्तर्धान हो जाती है। इस प्रकार सत्त्वगुण तो व्यक्त है और पुरुष अव्यक्त माना गया है। ब्रह्मर्षियों! इस तत्त्व को समझो। अब मैं तुम लोगों से आगे की बात बताता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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