महाभारत वन पर्व अध्याय 300 श्लोक 1-18

त्रिशततम (300) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिशततम अध्यायः 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


सूर्य का स्वप्न में कर्ण को दर्शन देकर उसे इन्द्र को कुण्डल और कवच न देने के लिये सचेत करना तथा कर्ण का आग्रहपूर्वक कुण्डल और कवच देने का ही निश्चय रखना

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! लोमश जी ने इन्द्र के कथनानुसार उस समय पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से जो यह महत्त्वपूर्ण वचन कहा था कि ‘तुम्हें जो बड़ा भारी भय लगा रहता है और जिसकी तुम किसी के सामने चर्चा भी नहीं करते, उसे ही मैं अर्जुन के यहाँ (स्वर्ग) से चले जाने पर दूर कर दूँगा।’ जप करने वालों में श्रेष्ठ वैशम्पायन जी! धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर को कर्ण से वह कौन-सा भारी भय था, जिसकी वे किसी के सम्मुख बात भी नहीं चलाते थे।

वैशम्पायन जी ने कहा- नृपश्रेष्ठ! भरतकुलभूषण! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैं यह कथा सुनाऊँगा। तुम ध्यान देकर मेरी बात सुनो। जब पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष बीत गये और तेरहवाँ वर्ष आरम्भ हुआ, तब पाण्डवों के हितकारी इन्द्र कर्ण से कवच-कुण्डल माँगने को उद्यत हुए। महाराज! कुण्डल के विषय में देवराज इन्द्र का मनोभाव जानकर भगवान सूर्य कर्ण के पास गये। ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी वीर कर्ण अत्यन्त निश्चिन्त होकर एक सुन्दर बिछौने वाली बहुमूल्य शय्या पर सोया था। राजेन्द्र! भरतनन्दन! अंशुमाली भगवान सूर्य ने पुत्रस्नेहवश अत्यन्त दयाभाव युक्त हो रात को सपने में कर्ण को दर्शन दिया। उस समय उन्होंने वेदवेत्ता ब्राह्मण का रूप धारण कर रक्खा था। उनका स्वरूप योग-समृद्धि से सम्पन्न था। उन्होंने कर्ण के हित के लिये उसे समझाते हुए इस प्रकार कहा- ‘सत्यधारियों में श्रेष्ठ तात कर्ण! मेरी बात सुनो। महाबाहो! मैं सौहार्दवश आज तुम्हारे परम हित की बात कहता हूँ। कर्ण! देवराज इन्द्र पाण्डवों के हित की इच्छा से तुम्हारे दोनों कुण्डल (और कवच) लेने के लिये ब्राह्मण का छद्मवेश धारण करके तुम्हारे पास आयेंगे। तुम्हारी दानशीलता का उन्हें ज्ञान है तथा सम्पूर्ण जगत् को तुम्हारे इस नियम का पता है कि किसी सत्पुरुष के माँगने पर तुम उसकी अभीष्ट वस्तु देते ही हो, उससे कुछ माँगते नहीं हो। तात! तुम ब्राह्मणों को उनकी माँगी हुई वस्तु दे ही देते हो; साथ ही धन तथा और जो कुछ भी वे माँग लें, सब दे डालते हो। किसी को नहीं कहकर निराश नहीं लौटाते। तुम्हारे ऐसे स्वभाव को जानकर साक्षात् इन्द्र तुमसे तुम्हारे कवच और कुण्डल माँगने के लिये आने वाले हैं। उनके माँगने पर तुम उन्हें अपने दोनों कुण्डल दे न देना।

यथाशक्ति अनुनय विनय करके उन्हें समझा देना; इससे तुम्हारा परम मंगल होगा। इस प्रकार वे जब-जब कुण्डल के लिये बात करें, तब-तब बहुत-से कारण बताकर तथा दूसरे नाना प्रकार के धन आदि देने की बात कहकर बार-बार उन्हें कुण्डल माँगने से मना करना। नाना प्रकार के रत्न, स्त्री, गौ, भाँति-भाँति के धन देकर तथा बहुत से दृष्टान्तों द्वारा बहलाकर कुण्डलार्थी इन्द्र को टालने का प्रयत्न करना। कर्ण! यदि तुम अपने जन्म के साथ ही उत्पन्न हुए ये सुन्दर कुण्डल इन्द्र को दे दोगे, तो तुम्हारी आयु क्षीण हो जायेगी और तुम मृत्यु के अधीन हो जाओगे।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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