महाभारत वन पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-19

षट्सप्ततितम (76) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


दमयन्ती और बाहुक की बातचीत, नल का प्राकट्य और नल-दमयन्ती-मिलन

बृहदश्व मुनि कहते हैं- युधिष्ठिर! परम बुद्धिमान् पुण्यश्लोक राजा नल के सम्पूर्ण विकारों को देखकर केशिनी ने दमयन्ती को आकर बताया। अब दमयन्ती नल के दर्शन की अभिलाषा से दुःखातुर हो गयी। उसने केशिनी को पुनः अपनी मां के पास भेजा। (और यह कहलाया-) ‘मां! मेरे मन में बाहुक के ही नल के होने का संदेह था, जिसकी मैंने बार-बार परीक्षा करा ली है और सब लक्षण तो मिल गये हैं। केवल नल के रूप में संदेह रह गया है। इस संदेह का निवारण करने के लिये में स्वयं पता लगाना चाहती हूँ। माताजी! या तो बाहुक को महल में बुलाओ या मुझे ही बाहुक के निकट जाने की आज्ञा दो। तुम अपनी रुचि के अनुसार-पिताजी से सूचित करके अथवा उन्हें इसकी सूचना दिये बिना इसकी व्यवस्था कर सकती हो’।

दमयन्ती के ऐसा कहने पर महारानी ने विदर्भ नरेश भीम से अपनी पुत्री का यह अभिप्राय बताया। सब बातें सुनकर महाराज ने आज्ञा दे दी।

भरतकुलभूषण! पिता और माता की आज्ञा ले दमयन्ती ने नल को राजभवन के भीतर जहाँ वह स्वयं रहती थी, बुलवाया! दमयन्ती को सहसा सामने उपस्थित देख राजा नल शोक और दुःख से व्याप्त हो नेत्रों से आंसू बहाने लगे। उस समय नल को उस अवस्था में देखकर सुन्दरी दमयन्ती भी तीव्र शोक में व्याकुल हो गयी। महाराज! तदनन्तर मलिन वस्त्र पहने, जटा धारण किये, मैल और पंक से मलिन दमयन्ती ने बाहुक से पूछा- ‘बाहुक! तुमने पहले किसी ऐसे धर्मज्ञ पुरुष को देखा है, जो अपनी सोयी हुई पत्नी को वन में अकेले छोड़कर चले गये थे। पुण्यश्लोक महाराज नल के सिवा दूसरा कौन होगा, जो एकान्त में थकावट के कारण अचेत सोयी हुई अपनी निर्दोष प्रियतमा पत्नी को छोड़कर जा सकता हो। न जाने उन महाराज का मैंने बचपन से ही क्या अपराध किया था, जो नींद की मारी मुझ असहाय अबला को जंगल में छोड़कर चल दिये। पहले स्वयंवर के समय साक्षात् देवताओं को छोड़कर मैंने उनका वरण किया था। मैं उनकी अनुगत भक्त, निरन्तर उन्हें चाहने वाली और पुत्रवती हूं, तो भी उन्होंने कैसे मुझे त्याग दिया? अग्नि के समीप और देवताओं के समक्ष मेरा हाथ पकड़कर और ‘मैं तेरा अनुगत होकर रहूंगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करके जिन्होंने मुझे अपनाया था, उसका वह सत्य कहाँ चला गया?

शत्रुदमन युधिष्ठिर! दमयन्ती जब ये सब बातें कह रही थी, उस समय नल के नेत्रों से शोकजनित दुःखपुर्ण आंसुओं की अजस्त्र धारा बहती रही थी। उनकी आंखों की पुतलियां काली थीं और नेत्र के किनारे कुछ-कुछ लाल थे। उनसे निरन्तर अश्रुधारा बहाते हुए नल ने दमयन्ती को शोक से आतुर देख इस प्रकार कहा- ‘भीरु! मेरा जो राज्य नष्ट हो गया और मैंने जो तुम्हें त्याग दिया, वह सब कलियुग की करतूत थी। मैंने स्वयं कुछ नहीं किया था। पहले जब तुम वन में दु:खी होकर दिन-रात मेरे लिये शोक करती थीं और उस समय धर्मसंकट में पड़ने पर तुमने जिसे शाप दे दिया था, वही कलियुग मेरे शरीर में तुम्हारी शापग्नि से दग्ध होता हुआ निवास करता था, जैसे आग में रखी हुई आग हो; उसी प्रकार वह कलि तुम्हारे शाप से दग्ध हो सदा मेरे भीतर रहता था।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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