महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-18

षडशीतितम (86) अध्याय: कर्ण पर्व

Prev.png

महाभारत: कर्ण पर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


कर्ण के साथ युद्ध करने के विषय में श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातचीत तथा अर्जुन का कर्ण के सामने उपस्थित होना


संजय कहते हैं- राजन! अपने पुत्र को अपनी आँखों के सामने ही युद्ध में श्वेत वाहन अर्जुन द्वारा मारा गया देख महामनस्वी कर्ण को महान क्रोध हुआ तथा उसने श्रीकृष्ण और अर्जुन पर सहसा आक्रमण कर दिया। सीमा को लाँघकर आगे बढ़ते हुए महासागर के सदृश विशालकाय कर्ण गर्जना करता हुआ आगे बढ़ा। वह देवताओं के लिये भी दुर्जय था। उसे आते देख दशार्ह कुलनन्दन पुरुष श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने हँसकर अर्जुन से कहा-पार्थ! जिसके सारथि शल्य हैं और रथ में श्वेत घोडे़ जुते हैं, वही यह कर्ण रथसहित इधर आ रहा है। धनंजय! तुम्हें जिसके साथ युद्ध करना है, वह कर्ण आ गया। अब स्थिर हो जाओ। पाण्डु नन्दन! श्वेत घोड़ों से जुते हुए कर्ण के इस सजे-सजाये रथ को, जिस पर वह स्वयं विराजमान है, देखो। इस पर भाँति-भाँति की पताकाएँ फहरा रही हैं तथा वह छोटी-छोटी घंटियों वाली झालर से अलंकृत है। ये सफेद घोड़े आकाश में विमान के समान इस रथ को लेकर मानो उडे़ जा रहे हैं। महामनस्वी कर्ण की इस ध्वजा को तो देखो, जिसमें हाथी के रस्से का चिह्न बना हुआ है। वह ध्वज इन्द्रधनुष के समान प्रकाशित होता हुआ आकाश में रेखा-सा खींच रहा है।

देखो, दुर्योधन का प्रिय चाहने वाला कर्ण इधर ही आ रहा है। वह जल की धारा गिराने वाले बादल के समान बाणधारा की वर्षा कर रहा है। ये मद्रदेश के स्वामी राजा शल्य रथ के अग्रभाग में बैठकर अमित बलशाली इस राधापुत्र कर्ण के घोड़ों को काबू में रख रहे हैं। पाण्डु नन्दन! सुनो, दुन्दुभि का गम्भीर घोष और भयंकर शंखध्वनि हो रही है। चारों ओर नाना प्रकार के सिंहनाद भी होने लगे हैं, इन्हें सुनो। अमित तेजस्वी कर्ण अपने धनुष को बड़े वेग से हिला रहा है। उसकी टंकार ध्वनि बड़ी भारी आवाज को भी दबाकर सुनायी पड़ रही है, सुनो। जैसे महान वन में मृग कुपित हुए सिंह को देखकर भागने लगते हैं, उसी प्रकार ये पांचाल महारथी अपने सैन्यदल के साथ कर्ण को देखकर भागे जा रहे हैं।

कुन्तीनन्दन! तुम्हें पूर्ण प्रयत्न करके सूतपुत्र कर्ण का वध करना चाहिये। दूसरा कोई मनुष्य कर्ण के बाणों को नहीं सह सकता है। देवता, असुर, गन्धर्व तथा चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को तुम रणभूमि में जीत सकते हो; यह मुझे अच्छी तरह मालूम है। जिनकी मूर्ति बड़ी ही उग्र और भयंकर है, जो महात्मा हैं, जिनके तीन नेत्र और मस्तक पर जटाजूट है, उन सर्व समर्थ ईश्वर भगवान शंकर को दूसरे लोग देख भी नहीं सकते फिर उनके साथ युद्ध करने की बात ही क्या है? परंतु तुमने सम्पूर्ण जीवों का कल्याण करने वाले उन्हीं स्थाणुस्वरूप महादेव साक्षात भगवान शिव की युद्ध के द्वारा अराधना की है, अन्य देवताओं ने भी तुम्हें वरदान दिये हैं; इसलिये महाबाहु पार्थ! तुम उन देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान शंकर की कृपा से कर्ण को उसी प्रकार मार डालो, जैसे वृत्र विनाशक इन्द्र ने नमुचि का वध किया था। कुन्तीनन्दन! तुम्हारा सदा ही कल्याण हो। तुम युद्ध में विजय प्राप्त करो।

अर्जुन ने कहा- मधुसूदन श्रीकृष्ण! मेरी विजय अवश्य होगी, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत के गुरु आप मुझ पर प्रसन्न हैं। महारथी हृषीकेश! आप मेरे रथ और घोड़ों को आगे बढाईये। अब अर्जुन समरांगण में कर्ण का वध किये बिना पीछे नहीं लौटेगा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः