महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-19

द्विनवतितम (92) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्विनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजा के धर्मपूर्वक आचर के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश

युधिष्ठिर ने पूछा-कुरूश्रेष्ठ पितामह! धर्मात्मा राजा यदि धर्म में स्थित रहना चाहे तो उसे किस प्रकार बर्ताव करना चाहिये ? यह मैं आप से पूछता हूँ; आप मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा-राजन! इस विषय में लोग तत्त्वज्ञानी महात्मा वामदेवजी द्वारा दिये हुए उपदेश रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। वसुमना नामक एक प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, जो ज्ञारवान, धैर्यवान और पवित्र आचार-विचार वाले उन्होंने एक दिन तपस्वी महर्षि वामदेवजी से पूछा-‘भगवन्! मैं किस बर्ताव का पालन करता रहूँ, जिससे अपने धर्म से कभी न गिरूँ। आप अपने अर्थ और धर्मयुक्त वचनों द्वारा मुझें इसी बात का उपदेश दीजिये‘। तब तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ तेजस्वी महर्षि वामदेव ने नहुषपुत्र ययाति के समान सुखपूर्वक बैठे हुए सुवर्ण की-सी कान्ति वाले राजा वसुमना से कहा। वामदेव जी बोले-राजन्! तुम धर्म का ही अनुसरण करो। धर्म से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि धर्म में स्थित रहने वाले राजा इस सारी पृथ्वी को जीत लेते हैं। जो भूपाल धर्म को अर्थ-सिद्धि की अपेक्षा भी बड़ा मानता है और उसी को बढ़ाने में अपने मन और बुद्धि का उपयोग करता है, वह धर्म के कारण बड़ी शोभा पाता है। इसके विपरीत जो राजा अधर्म पर ही दृष्टि रखकर बलपूर्वक उसमें प्रवृत्त होता है, उसे धर्म और अर्थ दोनों पुरुषार्थ शीघ्र छोड़कर चल देते हैं। जो दुष्ट एवं पापिष्ठ मन्त्रियों की सहायता से धर्म को हानि पहुँचाता है, वह सब लोगों का वध्य हो जाता है और अपने परिवार के साथ ही शीघ्र संकटमें पड़ जाता है।

जो राजा अर्थ-सिद्धि की चेष्टा नहीं करता और स्वेच्छाचारी हो बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, वह सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। परंतु जो कल्याणकारी गुणों को ग्रहण करने वाला, अनिन्दक, जितेन्द्रिय और बुद्धिमान होता है, वह राजा उसी प्रकार वृद्धि को प्राप्त होता है, जैसे नदियों के प्रवाह से समुद्र। राजा को चाहिये कि वह सदा धर्म, अर्थ, काम, बुद्धि और मित्रों से सम्मान होने पर भी कभी अपने को पूर्ण न माने-सदा उन सबके संग्रह को बढ़ाने की ही चेष्टा करे। राजा की जीवन यात्रा इन्हीं सबों पर अवलम्बित है। इन सबको सुनने और ग्रहण करने से राजा को यश, कीर्ति, लक्ष्मी और प्रजा की प्राप्ति होती है। जो इस प्रकार धर्म के प्रति आग्रह रखने वाला एवं धर्म और अर्थ का चिन्तन करने वाला है तथा अर्थ पर भलीभाँति विचार करके उसका सेवन करता है, वह निश्चय ही महान् फल का भागी होता है। जो दुःसहासी, दान न देने वाला और स्नेहशून्य तथा दण्ड के द्वारा प्रजा को बार-बार सताता है, वह राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जो बुद्धिहीन राजा पाप करके भी अपनी बुद्धि के द्वारा अपने को पापी नहीं समझता, वह इस लोक में अपकीर्ति से कलंकित हो परलोक में नरक का भागी होता है। जो सबका मान करने वाला, दानी, स्नेहयुक्त तथा दूसरों के वशवर्ती होकर रहता है, उस पर यदि कोई संकट आ जाय तो सब लोग उसे अपना ही संकट मानकर उसको मिटाने की चेष्टा करते हैं। जिसको धर्म के विषय में शिक्षा देने वाला कोई गुरु नहीं है और जो दूसरों से भी कुछ नहीं पूछता है तथा धन मिल जाने पर सुखभोग में आसक्त हो जाता है, वह दीर्घकाल तक सुख नहीं भोग पाता है। जो धर्म के विषय में गुरु को प्रधान मानकर उनके उपदेश के अनुसार चलता है, जो स्वयं ही अर्थ-सम्बन्धी सारे कार्यों को देखता है तथा सब प्रकार के लाभों में धर्म को ही प्रधान लाभ समझता है, वह चिरकाल तक सुख का उपभोग करता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में वामदेवजी की गीताविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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