चतुर्दशाधिकत्रिशततम (314) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
सात्त्विक, राजस और तामस प्रकृति के मनुष्यों की गतिका वर्णन तथा राजा जनक के प्रश्न याज्ञवल्क्यजी कहते हैं—पुरुषप्रवर! सत्त्व, रज और तम— ये तीन प्रकृति के गुण हैं जो सम्पूर्ण जगत् में सदा सदा विद्यमान रहते हैं। कभी उससे अलग नहीं होते हैं। यह ऐश्वर्यशालिनी प्रकृति अपने ही प्रभाव से जीव को सैकड़ों, हजारों, लाखों और करोड़ों रूपों में प्रकट कर देती है। अध्यात्म- शास्त्र का चिन्तन करने वाले विद्वान् कहते हैं कि सात्त्विक पुरुष को उत्तम, रजोगुणी को मध्यम और तमोगुणी को अधम स्थान की प्राप्ति होती है। केवल पुण्य करने से मनुष्य ऊर्ध्वलोक में गमन करता है, पुण्य और पाप दोनों के अनुष्ठान से मर्त्यलोक में जन्म लेता है तथा केवल पापाचार करने पर उसे अधोगति में गिरना पड़ता है। अब मैं सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणों के द्वन्द्व[1] और संनिपात[2]का यथार्थरूप से वर्णन करता हूँ, सुनो। सत्त्वगुण के साथ रजोगुण, रजोगुण के साथ तमोगुण, तमोगुण के साथ सत्त्वगुण तथा सत्त्वगुण के साथ अव्यक्त (जीवात्मा)- का सम्मिश्रण देखा जाता है (यह दो तत्वों का संयोग या मेल ही द्वन्द्व है)। जीवात्मा जब सत्त्वगुण से संयुक्त होता है, तब देवलोक को प्राप्त होता है। रजोगुण और सत्त्वगुण से संयुक्त होने पर वह मनुष्य-लोक में जाता है तथा रजोगुण और तमोगुण से संयुक्त होने पर वह पशु-पक्षी आदि की योनियों में जन्म ग्रहण रकता है। राजस, तामस और सात्त्विक तीनों भावों से युक्त होने पर जीव को मनुष्ययोनि की प्राप्ति होती है। जो पुण्य और पाप दोनों से रहित हैं, उन महात्मा पुरुषों के लिये सनातन, अविकारी, अक्षय और अमृतपद की प्राप्ति बातयी गयी है। जहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं है, जहाँ से कभी पतन नहीं होता है, जो इन्द्रियायीत है, जहाँ बन्धन में डालने वाला कोई कारण नहीं है तथा जो जन्म, मृत्यु और अज्ञान का विनाश करने वाला है, वह श्रेष्ठ स्थान (परमपद) ज्ञानियों को ही प्राप्त हो सकता है। नरेश्वर! तुमने जो अव्यक्त प्रकृति में स्थित परमतत्व के विषय में मुझसे प्रश्न किया था, उसके उत्तर में यह निवेदन है कि यह परमतत्व प्राकृत शरीर में स्थित होने से ही प्रकृतिस्थ कहलाता है। पृथ्वीनाथ! प्रकृति अचेतन मानी गयी है। इस परमतत्व द्वारा अधिष्ठित होकर ही वह सृष्टि एवं संहार करती है। जनकने पूछा—महामते! प्रकृति और पुरुष दोनों आदि-अन्त से रहित, मूर्तिहीन और अचल हैं। दोनो अपने-अपने गुण में स्थिर रहने वाले और दोनों ही निर्गुण हैं। मुनिश्रेष्ठ! वे दोनों ही बुद्धि-अगोचर हैं। फिर इन दोनों में से एक प्रकृति को आपने अचेतन क्यों बताया है ? तथा दूसरे को चेतन एवं क्षेत्रज्ञ कैसे कहा है ? विप्रवर! आप पूर्ण रूप से मोक्षधर्म का सेवन करते हैं, इसलिये आपही के मुँह से मैं सम्पूर्ण मोक्ष-धर्म का यथावत् रूप से श्रवण करना चाहता हैूँ। आप पुरुष के अस्तित्व, केवलत्व और प्रकृति से पृथक् सत्ताका स्पष्टीकरण कीजिये और देह का आश्रय ग्रहण करने वाला जो देवता हैं, उनका तत्त्व भी मुझे समझाइये। तथा मरने वाले जीव के प्राणों का जब उत्क्रमण होता है, उस समय उसे समयानुसार किस स्थान की प्राप्ति होती है ? इस पर प्रकाश डालिये। साधु शिरोमणे! साथ ही पृथक्–पृथक् सांख्य और योग के ज्ञान का तथा मृत्युसूचक लक्षणों का यथार्थरूप से वर्णन कीजिये; क्योंकि ये सारी बातें आपको हाथ पर रखे हुए आँवले के समान ज्ञात हैं।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद विषयक तीन सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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