महाभारत वन पर्व अध्याय 303 श्लोक 1-17

त्र्यधिकत्रिशततम (303) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्र्यधिकत्रिशततम अध्यायः 1-17श्लोक का हिन्दी अनुवाद


कुन्तिभोज के यहाँ ब्रह्मर्षि दुर्वासा का आगमन तथा राजा का उनकी सेवा के लिये पृथा को आवश्यक उपदेश देना

जनमेजय ने पूछा- सज्जनशिरोमणे! कौन-सी ऐसी गोपनीय बात थी, जिसे भगवान सूर्य ने कर्ण पर प्रकट नहीं किया। उसके वे दोनों कुण्डल और कवच कैसे थे? तपोधन! कर्ण को कुण्डल और कवच कहाँ से प्राप्त हुए थे? मैं यह सुनना चाहता हूँ, आप कृपापूर्वक मुझे बताइये।

वैशम्पायन जी ने कहा- राजन्! सूर्यदेव की दृष्टि में जो गोपनीय रहस्य था, उसे बताता हूँ। इसके साथ कर्ण के कुण्डल और कवच कैसे थे? यह भी बता रहा हूँ।

राजन्! प्राचीन काल की बात है, राजा कुन्तीभोज के दरबार में अत्यन्त ऊँचे कद के एक प्रचण्ड तेजस्वी ब्राह्मण उपस्थित हुए। उन्होंने दाढ़ी, मूँछ, दण्ड और जटा धारण कर रक्खी थी। उनका स्वरूप देखने ही योग्य था। उनके सभी अंग निर्दोष थे। वे तेज से प्रज्वलित होते से जान पड़ते थे। उनके शरीर की कान्ति मधु के समान पिंगल वर्ण की थी। वे मधुर वचन बोलने वाले तथा तपस्या और स्वाध्यायरूप सद्गुणों से विभूषित थे। उन महातपस्वी ने राजा कुन्तीभोज से कहा- ‘किसी से ईर्ष्या न करने वाले नरेश! मैं तुम्हारे घर में भिक्षान्न भोजन करना चाहता हूँ। परंतु एक शर्त है, तुम या तुम्हारे सेवक कभी मेरे मन के प्रतिकूल आचरण न करें। अनघ! यदि तुम्हें मेरी यह शर्त ठीक जान पड़े, तो उस दशा में मैं तुम्हारे घर में निवास करूँगा। मैं अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहूँगा, चला जाऊँगा। राजन्! मेरी शय्या और आसन पर बैठना अपराध होगा। अतः यह अपराध कोई न करे।'

तब राजा कुन्तीभोज ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्तर दिया- ‘विप्रवर! ‘एवमसतु’-जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही होगा,’ इतना कहकर वे फिर बोले- ‘महाप्रज्ञ! मेरे पृथा नाम की एक यशस्विनी कन्या है, जो शील और सदाचार से सम्पन्न, साध्वी, संयम-नियम से रहने वाली और विचारशील है। वह सदा आपकी सेवा-पूजा के लिये उपसिथत रहेगी। उसके द्वारा आपका अपमान कभी न होगा। मेरा विश्वास है कि उसके शील और सदाचार से आप संतुष्ट होंगे’। ऐसा कहकर उन ब्राह्मण देवता की विधिपूर्वक पूजा करके राजा ने अपनी विशाल नेत्रों वाली कन्या पृथा के पास जाकर कहा- ‘वत्से! ये महाभाग ब्राह्मण मेरे घर में निवास करना चाहते हैं। मैंने ‘तथास्तु’ कहकर इन्हें अपने यहाँ ठहरने की प्रतिज्ञा कर ली है। बेटी! तुम पर भरोसा करके ही मैंने इन तेजस्वी ब्राह्मण की आराधना स्वीकार की है; अतः तुम मेरी बात कभी मिथ्या न होने दोगी, ऐसी आशा है। ये विप्रवर महातेजस्वी तपस्वी, ऐश्वर्यशाली तथा नियमपूर्वक वेदों के स्वाध्याय में संलग्न रहने वाले हैं। ये जिस-जिस वस्तु के लिये कहें, वह सब इन्हें ईर्ष्यारहित हो श्रद्धा के साथ देना। क्योंकि ब्राह्मण ही उत्कृष्ट तेज है, ब्राह्मण ही परम तप है, ब्राह्मणों के नमस्कार से ही सूर्यदेव आकाश में प्रकाशित हो रहे हैं। माननीय ब्राह्मणों का सम्मान न करने के कारण ही महान् असुर वातापि और उसी प्रकार तालजंघ ब्रह्मदण्ड से मारे गये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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