महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-8

त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


विद्वान् सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता तथा ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक राजा पुरूरवा का उपाख्यान


भीष्म जी बोले- राजन्! राजा को चाहिये कि धर्म और अर्थ की गति को अत्यन्त गहन समझकर अविलम्ब किसी ऐसे ब्राह्यण को पुरोहित बना ले, जो विद्वान और बहुश्रुत हो। राजन्! जिन राजाओं का पुरोहित धर्मात्मा एवं सलाह देने में कुशल होता है और जिनका राजा भी ऐसे ही गुणों से सम्पन्न ( धर्मपरायण एवं गुप्त बातों का जानने वाला )होता है, उन राजा और प्रजाओं का सब प्रकार भला होता है। उनके धर्म, अर्थ और काम तीनों की निश्चय ही सिद्धि होती है। युधिष्ठिर! इस विषय में शुक्राचार्य के गाये हुए कुछ श्लोक हैं, उन्हे तुम सुनो। जिस राजा के पास पुरोहित नहीं वह उच्छिष्ट ( अपवित्र ) हो जाता है। जिसके पास पुरोहित नहीं है, वह राजा राक्षसों, असुरो, पिचासों, नागों, पक्षियों, का तथा शत्रुओं का वध्य होता है। पुरोहित को चाहिये कि राजा के लिए जो सदा आवश्यक कर्तव्य हों जो- जो बडे-बडे़ उत्पात होने-वाले हों जो अभीष्ट तथा मागंलिक कृत्य हों तथा जो अन्तः पुर से सम्बन्ध रखने वाले वृतान्त हों, वे सब राजा को बतावे।
राजा को प्रिय लगने वाले जो गीत और नृत्यसम्बन्धी कार्य हों, उनमें करने योग्य कर्तव्य का पुरोहित निर्देश करे, बलिवैश्वदेव कर्म का सम्पादन करे। जो राजा अनुकुल नक्षत्र उत्पन्न हुआ है तथा राजा शास्त्र की पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर चुका है, उससे भी श्रेष्ठ उसका पुरोहित होना चाहियें। जो भिन्न-भिन्न प्रकार के निमित्तों और उत्पातों का रहस्य जानता हो तथा शत्रु पक्ष के विनाशकी प्रणाली का भी जानकर हों ऐसा श्रेष्ठतम पुरुष राजा का पुारोहित होना चाहिये। यदि राजा और पुरोहित धर्मनिष्ठ, श्रद्धेय तथा तपस्वी हों, एक-दूसरे के प्रति सौहार्द रखते हों और समान हृदय वाले हों तो वे दोनों मिलकर प्रजा की वृद्धि करते हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं एवं पितरों को तृत्य करके पुत्र और प्रजाति वर्ग को अभ्युदयशील बनाते है ऐसे ब्राह्यण (पुरोहित) और क्षत्रिय (राजा) का सम्मान करने से प्रजा को सुख की प्राप्ती होती है। उन दोनों का अनादर करने से प्रजा का विनाश ही होता है, क्योंकि ब्राह्यण और क्षत्रिय सभी वर्णो के मूल कहे जाते हैं। इस विषय में राजा पुरूरवा और महर्षि कश्यप के संवाद रुप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। युधिष्ठिर! तुम उसे सुनो।

पुरूरवा ने पूछा- महर्षे! ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों साथ रहकर ही सबल होते हैं; परंतु जब ब्राह्यण पुरोहित किसी कारण को छोड देता है, तब अन्य वर्ण के लोग इन दोनो मे से किसका आश्रय ग्रहण करते हैं? तथा दोनों मे से कौन सबको आश्रय देता है? कश्यप ने कहा- राजन्! श्रेष्ठ पुरुष इस बात को जानते हैं कि संसार में जहाँ ब्राह्याण क्षत्रिय से विरोध करता है, वहाँ क्षत्रिय का राज्य छित्र -भित्र हो जाता है और लुटेरे दल-बल के साथ आकर उस पर अधिकार जमा लेते हैं तथा वहाँ निवास करने वाले सभी वर्ण के लोगों को अपने अधीन कर लेते हैं। [1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो क्षत्रिय ब्राह्यण को त्याग देते हैं, तब उनका वेदाध्ययन आगे नहीं बढ़ता, उनके पुत्रों की भी वृद्धि नहीं होती, उनके यहाँ दही-दूध का मटका नहीं मथा जाता और न वे यज्ञ ही कर पाते हैं। वे पद भृष्ट होकर डाकुओं की की भाँति लूट्पाट करने लगते हैं।

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