महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 265 श्लोक 1-14

पंचषष्‍टयधिकद्विशततम (265) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचषष्‍टयधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-14 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म जी ने कहा- राजन! प्राचीन काल में राजा विचख्‍नु ने समस्‍त प्राणियों पर दया करने के लिये जो उदगार प्रकट किया था, उस प्राचीन इतिहास का इस प्रसंग में जानकार मनुष्‍य उदाहरण दिया करते हैं। एक समय किसी यज्ञशाला में राजा ने देखा कि एक बैल की गरदन कटी हुई है और वहाँ बहुत-सी गौएं आर्तनाद कर रही हैं। यज्ञशाला के प्रांगण में कितनी ही गौएं खड़ी हैं। यह सब देखकर राजा बोले-‘संसार में समस्‍त गौओं का कल्‍याण हो।’ जब हिंसा आरम्‍भ होने जा रही थी, उस समय उन्‍होंने गौओं के लिये यह शुभ कामना प्रकट की और उस हिंसा का निषेध करते हुए कहा- जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्‍ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्‍हें आत्‍मा के विषय में संदेह है एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगों ने ही हिंसा का समर्थन किया है। धर्मात्‍मा मनु ने सम्‍पूर्ण कर्मों में अहिंसा का ही प्रतिपादन किया है।

मनुष्‍य अपनी ही इच्‍छा से यज्ञ की बाह्य वेदी पर पशुओं का बलिदान करते हैं। अत: विज्ञ पुरुष को उचित है कि वह वैदिक प्रमाण से धर्म के सूक्ष्‍म स्‍वरूप का निर्णय करे। सम्‍पूर्ण भूतों के लिये जिन धर्मों का विधान किया गया है, उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है। उपवासपूर्वक कठोर नियमों का पालन करें। वेद की फल श्रुतियों का परित्‍याग कर दें अर्थात काम्‍य कर्मों को छोड़ दें, सकाम कर्मों के आचरण को अनाचार समझकर उनमें प्रवृत न हो। कृपण (क्षुद्र) मनुष्‍य फल की इच्‍छा से कर्म करते हैं। यदि कहें कि मनुष्‍य यूप निर्माण के उद्देश्‍य से जो वृक्ष काटते और यज्ञ के उद्देश्‍य से पशुबलि देकर जो मांस खाते हैं, वह व्‍यर्थ नहीं है। अपितु धर्म ही है तो य‍ह ठीक नहीं; क्‍योंकि ऐसे धर्म की कोई प्रशंसा नहीं करते। सुरा, आसव, मधु, मांस और मछली तथा तिल और चावल की खिचड़़ी– इन सब वस्‍तुओं को धूर्तों ने यज्ञ में प्रचलित कर दिया है। वेदों में इनके उपयोग का विधान नहीं है। उन धूर्तों ने अभिमान, मोह और लोभ के वशीभूत होकर उन वस्‍तुओं के प्रति अपनी यह लोलुपता ही प्रकट की है। ब्राह्मण तो सम्‍पूर्ण यज्ञों में भगवान विष्‍णु का ही आदरभाव मानते हैं और खीर तथा फूल आदि से ही उनकी पूजा का विधान है। वेदों में जो यज्ञ-सम्‍बन्‍धी वृक्ष बताये गये हैं, उन्‍हीं का यज्ञों में उपयोग होना चाहिये। शुद्ध आचार-विचार वाले महान् सत्‍वगुणी पुरुष अपनी विशुद्ध भावना से प्रोक्षण आदि के द्वारा उत्तम संस्‍कार करके जो कोई भी हविष्‍य या नैवेद्य तैयार करते हैं, वह सब देवताओं को अर्पण करने के योग्‍य ही होता है।

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो हिंसा से अत्‍यन्‍त दूर रहने वाला है, उस पुरुष का शरीर और आपत्तियां परस्‍पर विवाद करने लगती हैं- आपत्तियां शरीर का शोषण करती हैं और शरीर आपत्तियों का नाश चाहता है; अत: सूक्ष्‍म हिंसा के भय से कृषि आदि किसी कार्य का आरम्‍भ न करने वाले पुरुष की शरीर यात्रा का निर्वाह कैसे होगा?

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! कर्मों में इस प्रकार प्रवृत होना चाहिये, जिससे शरीर की शक्ति सर्वथा क्षीण न हो जाय, जिससे वह मृत्‍यु के अधीन न हो जाय; क्‍योंकि मनुष्‍य शरीर के समर्थ होने पर ही धर्म का पालन कर सकता है।

इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में विचख्‍नुगीता विषयक दो सौ पैंसठवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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