महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 334 श्लोक 1-18

चतुस्त्रिंशदधिकत्रिशततम (334) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकत्रिशततम : श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


बदरिकाश्रम में नारदजी के पूछने पर भगवान् नारायण का परमदेव परमात्मा को ही सर्वश्रेष्ठ पूजनीय बताना

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ अथवा संन्यासी जो भी सिद्धि पाना चाहे, वह किस देवता का पूजन करे ? मनुष्य को अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति कैसे हो सकती है? उसे परम कल्याण किस साधन से सुलभ हो सकता है? वह किस विधि से देवताओं तथा पितरों के उद्देश्य से होम करे? मुक्म पुरुष किस गति को प्रापत होता है? मोक्ष का क्या स्वरूप है? स्वर्ग में गये हुए मनुष्य को क्या करना चाहिये? जिससे वह स्वर्ग से नीचे न गिरे? देवताओं का भी देवता और पितरों का भी पिता कौन है? अथवा उससे भी श्रेष्ठ तत्त्व क्या है? पितामह! इन सब बातों को आप मुझे बताइये।

भीष्मजी ने कहा- निष्पाप युधिष्ठिर! तुम प्रश्न करना खूब जानते हो। इस समय तुमने मुझसे बड़ा गूढ़ प्रश्न किया है। राजन्! भगवान् की कृपा अथवा ज्ञानप्रधान शास्त्र के बिना केवल तर्क के द्वारा सैंकड़ों वर्षों में भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। शत्रुसूदन! यद्यपि यह विषय समझने में बहुत कठिन है, तो भी तुम्हारे लिये तो इसकी व्याख्या करनी ही है। इस विषय में जानकार लोग देवर्षि नारद और नारायण ऋषि के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। मेरे पिताजी ने मुझे बताया था के भगवान् नारायण सम्पूर्ण जगत् के आत्मा, चतुर्मूर्ति और सनातन हुए थे। महाराज! स्वायम्भुव मन्वन्तर केू सत्ययुग में उन स्वयम्भू भगवान् वासुदेव के चार अवतार हुए थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं- नर, नारायण, हरि ओर कृष्ण। उनमें से अविनाशी नारायण और नर बदरिकाश्रम में जाकर एक सुवर्णमय रथ पर स्थित हो घोर तपस्या करने लगे। उनका वह मनोरम रथ आठ पहियों से युक्त था और उसमें अनेकानेक प्राणी जुते हुए थे। वे दोनों आदिपुरुष जगदीश्वर तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये। उनके शरीर की नसें दिखने लगीं। तपस्या से उनका तेज इतना बढ़ गया कि देवताओं को भी उनकी ओर देखना कठिन हो रका था। लिनपर वे कृपा करते थे, वही उन दोनों देवेश्वरों का दर्शन कर सकता था। निश्चय ही उन दोनों की इच्छा के अनुसार अपने हृदय में अन्तर्यामी की प्रेरणा होने पर देवर्षि नारद महामेरु पर्वत के शिखर से गन्धमादन पर्वत पर उतर पड़े। राजन्! नारदजी सम्पूर्ण लोकों में विचरते थे; अतः वे शीघ्रगामी मुनि बदरिकाश्रम के उस विशाल प्रदेश में घूमते-घामते आ पहुँचे, जो महान् प्राणियों से युक्त था। जब वहाँ नर और नारायण के नित्य कर्म का समय हुआ, उसी समय नारदजी के मन में उनके दर्शन के लिये बड़ी उत्कंठा हुई। वे सोचने लगे, ‘अहो! यह उन्हीं भगवान् का सथान है, जिनके भीतर देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर और महान् नागों सहित सम्पूर्ण लोक निवास करते हैं। ‘पहले ये एक ही रूप में विद्यमान थे; फिर धर्म की वंश-परम्परा का विस्तार करने के लिये ये चार विग्रहों में प्रकट हुए। इन चारों ने अपने उपार्जित धर्म से धर्मदेव की वंश-परंपरा को बढ़ाया है। अहो! इस समय नर, नारायण, कृष्ण और हरि- इन चारों देवताओं ने धर्म पर बड़ा अनुग्रह किया है। ‘इनमें से हरि और कृष्ण किसी और कार्य में संलग्न हैं; परंतु ये दोनों भाई नारायण और नर धर्म को ही प्रधान मानते हुए तपस्या में संलग्न हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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